बारह बादाम | Barah Badaam

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Barah Badaam by रमेशचन्द्र त्रिपाठी - Rameshchandra Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट खोपड़ोके अत्तर 9) १२ कुक | गया कि इससे बहस करने गयी ? जानती कि यह भेद ले रही है, तो बात ही न उठाती। अब अगर कभी बात भी छिड़ेगी, तो' पलट दूगी। जो बात अब कभी हो ही नहीं सकती, उसके लिये हाय-हाय करना बेकार है। ब्याहकी बात अपने बसकी नहीं है। माता-पिता जो चाहेंगे, वही होगा । .माता-पिताकी पलन्द और इच्छाके सामने मेरी पसन्द ओर इच्छाका कोई मूल्य नहीं हो सकता! इस बारेंमें मेरी सलाह भी कोन पूछेगा? मैं हैं क्या चीज्ञ ? असर चीज़ तो नसीब है। उसीपर रहना मेरा धमे है।” सोचते-सोचते वसुन्धरा बैसुध्र-ली हो गयी । थोड़ी ইহ बाद वह लस्बी साँस खींचकर उठी। देखा, आसमान बिल्कुल साफ़ है, दिशाओंमें सन्नाटा छा रहा है, पेड़ मूम रहे है, गंगा हिलोरे मार रही है, लहरें उठ-उठकर गिर जाती हैं। सोचा, खिड़कियाँ बन्द्‌ कर दूँ, प्रकृतिकी यह शोभा देखी नहीं जाती । ` इतने ज्ञोरकी हवा उटी कि घड़ाकेसे आप-हो-आप खिड़कियाँ बन्द हो गयीं । दीवारपर ख्टकै हुए चिज हिर गये । एक चित्र यूटकर ज्ञमीनपर गिर पड़ा । शीशा चकनाचूर हो गया । भजसे आवाज्ञ हुई। चमकीले टुकड़े चारों र बिखर गये | वसुन्धरा चौक पडो ! फोरन चित्र उठाकर देखा | बडे गौरसे देखा । आँखें गड़ाकर देखते-देखते चेहरा सुखं हो आया । एका बार ज्वालामयी आँखोंसे चित्रकी भोर देखते हुए दाँत पीसकर उसे फ़्शेपर पटक दिया ।




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