तुलसी का अन्तर्जगत | Tulsi Ka Antarjagat

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Tulsi Ka Antarjagat by देवेन्द्र सिंह - Devendra Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) जो जीवन को आजोकित करती है। उसका बार बार मानस के आदि अन्त और मध्य से यह पूछना राम कवन प्रभु पूछठ तोही” कुड सानी रखता है और इस प्रश्न का उत्तर केवल उत्तर कान्‍ड ही में नहीं बरन्‌ उसकी पुस्तक के प्रत्येक भाग में एक अनवरत बारा की भाति प्रवा- हित है । तुतसी को अपने जीवन के प्रवेश द्वार पर ही जीवन के अनुभव, गुर री कया, अवबने अन्तस्तल के साक्ष्य स यह तो जरूर भास होने लगा था कि दाह्य ससार की पिषमताओं और प्रद्ीतियों के पीछे कोई एक सत्ता है जो निरन्तर हमको उठा रही है, अपने समीय ना रही है, अपने स्वरूप के अनुफून छाव रही है, उसी की शरण में आकर समस्त दन्द मिट सकते है और उससे ही सम्पक स्थायित करना मातव जीवन की साथ कता है । यह धारणा क्रमश विश्वास, आस्था और फिर एक जीवन ज्योति में परिणत हो गई । वैराग्य सदीपिनी स रामचरितमानस और रामचरित मानस स विन पत्रिका के पदों तक तुगसी की रचनाएं पञइते जाइये और यह बात हृदय में उतरती ही चली आती है कि कवि गिचार की सीमाशो से आगे बफकर अनुबग की गहराइयों में प्रवेश करता जा रहा है अपने अनुभव के अन्त सुख को व्यक्त किए बिना रह सक्रना उसके जिये ग्रसम्भव है । काव्य और सभीत के सूक्ष्म, सुकोमत सकेतसय सुव॒रों में ही उसतदो अन्तरात्मा का यह अन्त सुख प्रकट हो सकता है और स्वभावत. बह इन्हीं को अपना साध्यम बनाता ই। जिन अनुभवी को कवि ने श्रात॒ किया डे यह एस नहीं है जो आसानी से शब्दों में व्यक्त फिए जा सके । युवयुग से सूक्ष्म अनुभभों को शब्दो और रूपको सें बाचकर रखना साहित्थ की सब स बड़ी समस्या रही है । व्याख्या पिश्लेपण करने वाले लेखको के कए पारिभामिक शब्दावतियों के सहारे यिचारोकी श्यु खला जोऽते चके जानाश्थ्रासान है, ५रन्तु सृजनात्मक साहित्य के रचियता के समाने जो समस्या होती है वह




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