षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका | Shatkhandagam Ki Shastriya Bhoomika

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Shatkhandagam Ki Shastriya Bhoomika by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(मूल) प्राकृकथन यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । सन्‌ १९२४ में मैन कारंजा के शास्त्रभंडारों का अवलोकन किया ओर वहां के ग्रंथो की सूची बनाई । वहां अपभ्रंश भाषा का बहुत सा अश्रुतपूर्व साहित्य मेरे दृष्टिगोचर हुआ । उसको प्रकाश में लाने की उत्कंठा मेरे तथा संसार के अनेक भाषा- कोविदो के हदय मे उठने लगी । ठीक उसी समय मेरी कारंजा के समीप ही अमरावती, किंग एडवई कालेज में नियुक्ति हो गईं ओर मेरे सदैव सहयोगी सिद्धांतशास्त्री पं. देवकीनन्दनजी के सुप्रयत्न से व श्रीमान्‌ सेठ गोपाल सावजी चबरे व बलात्कारगण मन्दिर के अधिकारियों के सदुत्साह से उन अपभ्रंश ग्रंथो के सम्पादन प्रकाशन का कार्य चल पड़ा, जिसके फलस्वरूप पांच छह अत्यन्त महत्वपूर्णं अपभ्रंश कान्यो का अब तक प्रकाशन हो चुका है। मूड़ाविद्री के धवलादि सिद्धांत ग्रंथों की कीर्ति में बचपन से ही सुनता आ रहा हूँ। सन्‌ १९२२ में मैने जैन साहित्य का विशेष रूप से अध्ययन प्रारम्भ किया, ओर उसी समय के लगभग इन सिद्धांत ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियों के कुछ-कुछ प्रचार की चर्चा सुनाई पड़ने लगी। किन्तु उनके दर्शनों का सौभाग्य मुझे पहले-पहले तभी प्राप्त हुआ जब हमारे नगर के अत्यन्त धर्मानुरागी, साहित्य प्रेमी श्रीमान्‌ सिंघई पन्नालाल जी ने धवल और जयधवल की प्रतिलिपियां कराकर यहां के जैन मन्दिर में विराजमान कर दीं। अब हृदय में चुपचाप आशा होने लगी कि कभी न कभी इन ग्रंथों को प्रकाश में लाने का अवश्य सुअबसर मिलेगा। सन्‌ १९३३ के दिसम्बर मास गे अखिल भारतवषीय दिगम्बर जैन परिषद्‌ का वार्षिक अधिवेशन इटारसी में हुआ और उसके सभापति हुए मेरे परमप्रिय मित्र वैरिस्टर जमनाप्रसाद जी सब जज | अधिवेशन में भेलसा निवासी सेठ लक्ष्मीचन्द्र सिताबरायजी भी आये थे। पहले दिन के जलसे के पश्चात्‌ रात्रि के समय हम लोग एक कमरे में बैठे हुए जैन साहित्य के उद्धार के विषय में चर्चा कर रहे थे। जजसाहब दिन भर की धूमधाम व दौड़-धूप से थककर सुस्त से लेटे हुए थे। इसी बीच किसी ने खबर दी कि भेलसा निवासी सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी भी अधिवेशन में आये हुए हैं और वे किसी धार्मिक कार्यं मे, सम्भवतः रथ चलाने मे, कुछ द्रव्य लगाना चाहते हैं। इस खबर से जजसाहब




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