दीर्घतमा | Deerghtama
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
259
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दीर्घतमा मामतेय हूँ।'
“अर्थात् दीर्घटमा ओचथ्य ?”
“हाँ, आर्य अध्यक्ष, कह सकते हैं। मुझे इस पर आपत्ति भला क्यों होगी ?
पर आर्य सभापते, मेरे जन्म से पूर्व ही मेरे पिता का देहांत हो गया और उनके
कनिष्ठ भ्राता आर्य बृहस्पति ने मेरी माँ को फूसलाकर उनसे विवाह कर लिया।
मेरी तो उन्होंने उपेक्षा की ही, मेरी माँ का भी उन्होंने भरपूर तिरस्कार आजीवन
किया। अपने पति के हाथों सदा तिरस्कृत ओर अंततः मर जानेवाली वत्सलनिधि
मौ ममता के नाम पर में स्वयं को दीर्घतमा मामतेय ही कहना चाहता हूँ।”
विशालकक्ष में चारों ओर साधु साधु' का हर्षनाद् हो रहा था तो बृहस्पति
का चेहरा क्रोध में तमतमा रहा था। बोले, “आर्य अध्यक्ष, मुझे भी कुछ कहने
की अनुमति मिले।”
“नहीं”, अध्यक्ष ने दो टूक शैली में निर्णय दिया, “दीर्घतमा से परिचय
देने को कहा गया था ओर उन्होंने अपना परिचय देने के लिए जितना आवश्यक
था उतना भर कहा है। यह विवाद उठाने का अवसर नहीं है। हाँ, तो वत्स
दीर्घतमा, अपना मंत्र गाओ।”
पेषी को कुछ भी समञ्च में नहीं आ रहा था। जब से दीर्घतमा का जन्म
हुआ था तब से वह उनके साथ थी, पर जान ही नहीं पाई थी कि विराट्
मस्तिष्कवाले इस युवा के हदय मेँ म॑तरसृष्टि कब हुई ? दीर्घतमा के दार्शनिक
व्यक्तित्व से वह भली भोति परिचित थी ओर इसलिए अब वह सुनने को उत्सुक
हो गई कि देखें, उन्होंने केसा मंत्र रचा है।
अध्यक्ष ओर सभा को प्रणाम कर दीर्घतमा बोले, “मैंने मंत्र तो एकाधिक
रचे हैं, पर इस ज्ञानसत्र में में केवल एक ही मंत्र परीक्षा के लिए गा रहा हूँ।'
और दीर्घतमा गाने लगे--
““दन्द्र मित्रं वरुणमग्निमाहुः
अथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्
एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति
User Reviews
No Reviews | Add Yours...