प्रेमचंद की प्रासंगिकता | Pramchand Ki Prasangikta

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Pramchand Ki Prasangikta by अमृतराय - Amratray

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेमचंद की प्रासंगिकता चढ़ी जवानी में लड़की विधवा हो जाती है, सामाजिक विधान इसकी अनुमति नहीं देते कि माँ-बाप उसका दुबारा विवाह कर दें। फलतः वह सारी उम्र उसी तरह विधवा का लुठा-पिटा जीवन विताने के लिए मजबूर है। फिर इस स्थिति में से नयी-नयी सम- स्याएँ उत्पन्न होती है--एक ओर उसके जीवन-यापन, भरण-पोपण की समस्या और दूसरी ओर उसके जवान शरीर की भूख की समस्या । प्रेमचंद ने अपने उपन्यास 'प्रतिज्ञा' में उसी की तो कहानी कही है । क्या उस सामाजिक स्थिति में भी कही कोई बदलाव आया है ? ज़रा पता तो लगाइए, आज भी कितनी विधवाओं का दूसरा विवाह होता है1 “निर्मला', जैसा कि हम सभी जानते है, अनमेल विवाह की कहानी है । जवान लड़की की शादी बुड़्ढे आदमी के साथ कर दी जाती है, क्योंकि जवान लड़का बाज़ार में बहुत महंगा मिलता है और बाप की गाँठ में उतना पैसा नहीं है! क्या आज भी ऐसी शादियाँ नहीं होतीं ? दहेज की समस्या ने आज और भी जैसा विक- राल रूप धारण कर लिया है, पता नहीं और भी क्या-क्या अनाचार न हो रहा होगा, यह्‌ तो उस जगल में घुसने पर ही पता चल सकता है ! सामाजिक कुरीतियों और क्रूरतम अन्याय की शिकार हजारों- लाखों जवान लड़कियाँ, 'सेवासदन” की सुमन की तरह, आज भी चकलों में पहुँच रही हैं, वल्कि आज तो शायद उनकी संख्या और भी बहुत बढ़ी हुई है। 'रंगरममि' की केन्द्रीय कथा उस अविस्मरणीय अहिसक संग्राम को लेकर है जो अंधा भिखारी सूरदास पूंजीपति जॉन सेवक के विरुद्ध लड़ता है जो उसको उसकी जमीन से बेदखल करके वहाँ पर अपना सिगरेट का कारखाना बेठाना चाहते है। सूरदास अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर यह लड़ाई लड़ता है क्योंकि उसका विश्वास है कि वहाँ पर सिगरेट के कारखाने का बैठना अनेक दृष्टियों से विलकरुल घातक होगा । विचार करके देखने प्र, सूरदास क्री यह आशंका तव से भी अधिक जीवंत रूप में आज हमारी आाँखों के १७,




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