वैदिक साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : भाग 1 | Vedik Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas Bhag-1

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Vedik Sahitya Ka Aalochanatmak Itihas Bhag-1 by जयदेव विद्यालंकार - Jaidev Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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10 : वैदिक साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास कुछ विद्वानों ने वेदों मे वणित सृष्टि विद्या, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित और शिल्प आदि विषयो का वर्णन करने वाले मन्त्रों की व्याख्या तत्सम्बन्धी विज्ञान को ध्यान मे रखकर की है भौर इस दृष्टिकोण पर आधारित अर्थ को हम वैज्ञानिक प्रक्रिया- प्रधान कह सकते है । प्रक्रिया-विवेचन वेद के विषय में अपनी-अपनी व्यक्तिगत धारणा के अनुसार प्राचीन और अर्वाचीन भाष्यकारो ने पृथक्‌-पृथक्‌ प्रक्रियाओ का आश्रय लेकर वेदमन्त्र का अथं किया है ओर इसलिए उनके अर्थो मे स्वभावतः पाथैक्य भौर कभी-कभी विरोध दुष्टिगोचर होता है । प्राचीन भाष्यकारो के अथं सामान्यतया अधिदैवत, अध्यात्म तथा अधियज्ञ प्रक्रियामो मे संगृहीत किये जा सकते हँ । येष प्रक्रियाजो का प्रयोग उन्होने इन्दी अर्थो को पुष्ट करने के लिए कियाथा। आधुनिक युग मे पाश्चात्य विद्वान्‌ मौर उनका अनुसरण करने वाले सारतीय विद्धान्‌ मुख्यत. वैदो का अथे ऐतिहासिक और याज्ञिक दृष्टि से ही करते हैं। याज्ञिक प्रक्रिया के साथ उनके अर्थों मे अधिदेवतवाद भी समग्रहीत है। उनकी दृष्टि मे ऋग्वेद के अपेक्षाकृत बड़े देवता जड, प्राकृतिकं पदार्थो के ही कल्पित चेतन देवता स्वरूप है । इस प्रसंग मे क्डानल का यह्‌ कथन द्रष्टव्य है-- ¶€ पर्नं ७005 01 236 7২15৮908, 265 2115056 210179]9 19619010161091101 91 ৪001] 01160018008-5001) 88 9012) एकरप, 7119, ৮7100 (লা, 9.56) । इन विद्वानों की दृष्टि मे वैदिक साहित्य एक ऐतिहासिक प्रलेख है जिसकी सहायता से वेदकालीन भारत के इतिहास, भूगोल, समाज, संस्कृति ओर सभ्यता का सम्यक्‌ अध्ययन किया जा सकता है। वेद का अर्थ करने मे इन विद्वानों ने वेद के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी सहायता ली है। ऐसा करने के लिए उसकी युवित यह रही हैं कि आधुनिक विद्वान्‌ ग्रीक और जवेस्ता के गाथा शास्त्र, इति- हास, और तुलनात्मक भाषाविज्ञान, अवेस्ता, ग्रीक, लैटिन, गाँथिक, लिथुआ- नियन तथा इंग्लिश मादि भाषाओं के ज्ञान की सहायता लेकर भारतीय भाष्यकारो की अपेक्षा ऋग्वेद और वैदिक साहित्य को समझने मे अधिक सक्षम हैं। न केवल इतना ही, वैदिक साहित्य को समझने के लिए बहुत से विद्वान्‌ पुरातत्त्वविज्ञान (4701260102#), मानवविज्ञान (4८००1०४), मानवजातिविज्ञान (10010६४), तथा समाजशास्त्र (3०५०108४) आदि की सहायता लेते ह } इसलिए पार्चात्य विद्रानो के वेदाध्ययन सम्बन्धी परिश्रम की कितनी भी प्रशंसा की जाए तथापि इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनका वेद सम्बन्धी दृष्टिकोण पारम्परिक भारतीय विद्वानों की तरह ही एक विशेष प्रकार के पूर्वाग्रह से युक्त होता है ।




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