पुरुदेवचम्पू का आलोचनात्मक परिशीलन | Purudevchampu Ka Alochnatmak Parishilan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम परिच्छेद विपय-प्रवेश पुर्देवचम्पु के कर्ना महाकवि अहुंद्यास्त : पुषदेवचम्पू के कां पहाफ़वि अहंद्वास हैं। पुरुदेव चम्पू के अतिरिक्त उनके 'मुनिमुद्रतकाब्य/ तथा “भव्यजनकण्ठाभरण” ये दो काव्य और उपलब्ध होते हैं! भव्यरजनकण्ठाभरण के अव्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है रझिवे हिन्दू शस्त्रो के अप्रतिम्र अध्येता तथा विद्वान थे । उक्त ग्रन्थ मे जगह-जगह दिये गये हिन्दू शास्त्रो के उद्ध रण इसके ममुज्ज्वल निदर्शन हैं। इसी आधार पर पं० कंलाशचन्द्र शास्त्री ने उनके जैन धर्मानुयाथी न होकर अन्यघर्मानुयायी होने का अनुमान लगाया है। श्री चाथूराम प्रेमी: का अनुमान है कि अहंद्यास नाम न होकर विशेषण जैसा ही मालूम पड़ता है।? अतः सम्भव है कि उनका नाम कुछ और ही रहा हो । वे जन्मपर्यनत गृहस्य हौ रहे । गृहस्थ रहते हए भी उन्होने मपनी ओनस्वी वाणी का उपयोग साधारण व्यक्त के चित्रण मे नही किया। ' मुनिसुव्रतकाव्य' तथा “पुरदेवचम्पू” से उन्होंने मुनिसुत्रा तथा ऋषभदेव के चरित को प्रतिपाद्य बनाया, तो मंब्यजतकण्ठाभरण से आप्तादि तथा सम्यददशेंत की सहिसा का विवेचन फ़िया है । प्राइत व्यवित को प्रशसा करने वाले कवियों को अहंंद्रास तुच्छ <६िटि से देखते थे । भर राजा महार।जा आदि घन सम्पन्त मनुष्यों की कविता द्वारा प्रशंसा करना जिनदाणी का अत्यधिक अपसान समझते पे-- सरस्वतीं कल्पलता स को घा सम्वदंपिष्यन्‌ निन्पारिनातम्‌। विपच्य काञ्जीरतसूपमेषु . व्यारोपयेत्प्राकृतनायक्रेपु ७5 অনা নী মন बडी विशेषता यह है कि उनके ঘা में व्यूर्थ का विस्तार नहीं है। हाँ 'पुर्देवचम्पू जँसे ग्रन्थों में जहाँ उन्होते अपनी कला को कर्वावाजियाँ 1. भव्यजनकण्ठाभरण, भूमिका, पृ० 8. 2. जैन साहित्य मौर इतिहास, पृ० 143. 3. **“*“*““दासों भवाम्पहंतः; (मुनिसुव्रतकाब्य 10.46) से भी यही ध्वनित होता है 1 4, मुनिसुव्रतकाव्य, 1.12,




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