व्यापार संघठन | Vyapar Saghatan
श्रेणी : अर्थशास्त्र / Economics
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
661
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२] [ व्यापार षक्घन
बहुत अच्छी चीज नहीं दै । श्रक्र देता देखा जाता है कि जहदबाजी का काम्त दी
व्यापार की असफलता का प्रत्यत्ञ कारण बन जाता है।
४--एकाकी व्यापारी अपने व्यापार कौ बातों अथवा गुप्त मेदों (8००:०७
को हिपाकर रख सकता है! प्रतिदन्द्री (00०७०४॥०७७) जितना अधिक उछकी
व्यापारिक योजनाओं (18०७) या जुप्त रहस्यों को किसी प्रकार ज्ञान लेते हैं, सुचाझु
रूप ले व्यापार के चलाने अथवा सफलता के उसे उतने हों कम अवसर मिचने की
सम्भावना रहती है ।
५--चूँ कि हर भ्यापार के चलाने में अपनी विशेष जोखियें होती हैं; इसलिये
व्यापार के मालिक मैं इसका उचित प्र+-घ करमे की योग्यता तथा ज्ञमता होनो चाहिये,
झन्यया छ्यापार के श्रठफन होने की श्रधिक सम्भावना रहती है। यही कारण हे कि
एकावी च्यापारी को अपने व्यापारिक प्रदन्ध में काय-क्षमता प्राप्त करने का अधिक
अच्छा श्रवसर मिलता है।
५ एकाकी व्यापार से हानियाँ
इन उप्यक्त लाम के होते हुए भी, ऐसी शेक असुविधाए” होती है জিদ
एकाकी व्यापार में, सफ़लतापूवक व्यवस्था करने में पंगन्प्ण पर कठिनाइयों और
ग्रधफ्लनाओं का सामना करना पढ़ता है | वे असुविधार या दानियो ये ई :--
१--एकांकी व्यापारी अपने बढ़ते हुए ब्यापार के लिंए, निवनी पूँजी की
श्रावश्यक्ता होती टै, उष सबही पतति नदी कर पक्ता । सिवाय उन दशाओं के
जहाँ कि या तो व्यापार असाधारण हृद् तऊ उन्नति कर जाता है और उसको यशंखिता
(07०89०71059) बढ़ जाती दै या जहाँ व्यापार का स्वामी अ्रपने व्यापार लॉम के
अ्रधिक्तम भाग वो उसी व्यापार रम लगाने की इच्छ रखता ই या लगाता जाता है,
अन्य दशाओं में व्यक्तिगत साइल ([50191098। 8०॥७४97180) व्यापार की उच्चति में
बुरी तरह बाघक हो सकता है। चाहे व्यापार का लाभ ख्वय॑ न लेकर उप्ती मैं लगाया
जाय और इस प्रकार भ्यापार की पूजी को बढ़ाया जाय; किन्तु फिर भी व्यापार को
पूँ जी वो कहाने या व्यापार को विस्तृत करने का यह एक छोटा या धीमा साधन है
और कभी-कभी तोः यदह साधन इतना खाघारण होता है कि इससे व्यापार में
बिल्कुल सामात्य विकास की मी तस्मावता नहीं रहती; इख्से व्यापार की कोई জান
उन्नति नहीं दोती ।
२--डड़े-बड़े व्यापाएँ मैं प्रायः किसी एक मतुष्य की चुमवा ओर शक्ति की
ऋपेज्षए ऋषिक व्यापारिक निव (०७००४ गण्ड), कुालवा (उषया) श्रौर
योग्यता (४५1८) की आवश्यकता होती है। इसी कारण देवे व्यायार को रुचालिप्र
करने के लिए मिन्न-मिन्न व्यापारी परस्पर»सम्मिलित होते হু जितते किये अपनो
सहकारी बुद्धि, कुशलता, योग्यता श्रादि से लाम उरा स्के ।
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