जैन धर्मामृत | Jain Dharmamrit

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Jain Dharmamrit  by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५४ जैनधर्मासखत इनके अतिरिक्त नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे पता चलता है कि उन्होंने १ युक्तिविन्तामणिस्तव, २ महेन्द्रमातलिसंजल्प, २३ पण्णवतिप्रकरण गौर ४ स्याद्रादोपनिषत्‌ नामक चार ग्रन्थोंकी और भी रचना की है। हमारा दुर्भाग्य है कि चारों ही ग्रन्थ अभीतक प्राप्त नहीं हुए ? यशस्तिलकचम्पूमे महाराज यशोधरके चरित्रका चित्रण जाठ अ।श्वासों- मे किया गया ह । जिनमें-से पहलेमें कथावतार, दूसरेमें यशोघरको राज्य- तिलक, तीसरेमें राज्यलक्ष्मी विनोद, चोथेमें महारानी अमृतमतीका दुबिलास, पाँचवेंमें भव-श्रमण, छठेमें अपवर्ग-मार्ग, सातवेंमें सम्यग्शान और देशचारित्रके पाँच अणुत्रत और तीन गुणब्रत, तथा आठवेंमें चार शिक्षात्रत और उपासक-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट करत्तंव्योंका वर्णन किया गया हैं। ग्रन्थकारने अन्तिम आद्वासमें श्रावकके आचारका एक विशिष्ट ही ढंगसे वर्णन किया है, जो कि उसके पूर्ववर्त्ती ग्रन्धोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता । यह ग्रन्थ शक सं० ८८१ (वि० सं० १०१६ ) की चैतसुदो १३ को रचा गया है, ऐसा स्वयं ग्रन्धथकारने इस ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें लिखा है, अतएवं उनका समय विक्रमकी दशवीं शताब्दीका अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शताब्दीका प्रथम चरण सिद्ध होता है। जैनधर्मामृतके दूसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायमें यशस्तिलूकचम्पृके पाँचवें, छठे और सातवें आश्वासके पंतालीस श्लोकोंका संग्रह किया गया है । पे इस ग्रन्थके प्रथम खण्डका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस बम्बईकी काव्य- मालासे सन्‌ १९०१ में और द्वितीय खण्डका प्रकाशन सन्‌ १९०३ में हुआ हैं । ७ अमृतचन्द्र और तत्त्वाथंसार एवं पुरुषाथसिद्धथ पाय दि० ओर इवे० सम्प्रदायमें समानरूपसे माने जानेवाले तत्त्वार्थसृत्रको




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