जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग ३ | Jainendra Siddhant Kosh Bhaag 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
43 MB
कुल पष्ठ :
641
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पदार्थ
पदाय- «या, मृ./२/२६३/१४२ व्यक्त्याकृतिजातयश्तु पदार्थ: ।६३।
~ व्यक्ति , आकृति, ओर “जाति' ये सब मिलकर पदका अर्थ
(पदार्थ | होता है । ॥॒ ;
न्या. बि./टी./१/0/१४०१५ जर्थोषिभिश्रेयः पदस्या्थ: पदाथ: ।« अप
अर्थात् अभिदेय । पदका अर्थ सो पदार्थ । ( अर्थाद सामान्य रूपसे
जो कुछ भी शब्दका जान है वा हध्दका विषय है बह दाब्द 'पदाथ'
शब्दका बाध्य है |
प्र. साचि. श्र (६३ इंह किल ये कश्चन परिक्छिदममान: पदार्थ: स सर्व
एमं -्व्यमय ` 'शुणात्मका'” पर्मायास्मका । « इस विश्वमे जो
जाननेमें आनेवाला पदार्थ है बह समस्त द्रव्ममय, गुणमय और
पर्धाययय है !
१, बब पदाथ भिर्देश
पं, का,|मू १०८ আবাজীবা भावा पुण्णं पा थे आसव॑ तैसिं। संबर-
णिज्जरभधो मोक्सो य ह्गति ते अटा ।१०८। =जीब और अजीब
दो भाष { अर्थाव् मूल पदार्थे ) तथा उन होके पुष्य, पाप, आखव,
संबर, निर्जरा, बंध अौर मोक्ष बह (नव) पर्थ हैं।ह०८। (गो,
जी,/मू (६२१/१०७६ ); (द, पा (दौ 1१६१८) ।
ने. ख, वृ./(६० जीबाह सतत्वं पण्णत्त जे जहस्थरूबेण । त॑ चेव णब-
पयरथा सपुष्णपाना पणो होंति 1१६० স্জীমারি আম तक्वोको
यथार्थ रूपसे कहा गया है, उन्हींमें पुण्य और पाप मिला देनेसे नव
पदार्थं बन जाते है ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. नव पदार्थका विंपवय--दे० तत्तय |
२, सब पदार्थ श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान--दे० सम्यग्दशन/11
ই. হজ্যঈী अथमे पदार्थ---दै० द्रव्य ।
४. शब्द अर्थ व शानरूप पदार्थ--वे० नग/1/४ '
ঘস্তলি--14০.০৫ (धे. (।प्र २७)
पटति-- १ पडतिका दण
क, पा, २/२,२२/६२६।१४/६ मुसविक्तिबिबरणाए पद्धईबबएसादो । «सूत्र
ओर वृत्ति हन दोनोंका जो विवरण है, उसको षद्रति संहा ९।
१. आगम चं नध्यात्य पदडतित अन्द
१, जगन ब अध्यात्म सामान्यकी अपेक्षा
`, का.(ता. वृ |१७३।२६५।११ अर्थ पदार्थानामभेशररनत्सप्रतिपादका-
नाममुकू् यत्र व्यास्यान क्रियते तवध्यात्मशाह्त्र भण्यते -बीतराग-
सब झप्रणीतपइ द्धपादिसम्यकश्रद्धानशञानमतारणुष्टा नमेद्रत्नत्र यस्व रूप॑
यत्र प्रतिपायते तदागमदहास्त्र भण्यते। “जिसमें अभेद र्त्नत्रयके
प्रतिपादक अर्थ और पदार्थोका व्याख्यान कथा जाता है
उसको अध्यात्म शास्त्र कहते है 1, -बौतराग सर्वज्ञ গীত জ: ত্য
आादिका सम्यकश्नद्वान, सम्यकहान, तथा अताएिके अषनुष्टाम रूप
रत्नत्रयके स्वरूपका जिसमें प्रतिधादन किया जाता है उसको आगम
लार कटेते है ।
है, स॑,|टी /९३/४०६ पृढविजसतेडबाऊ हत्यादिगाथाहवैन, तृत्तीय-
च “ गुणजीबापज्यत्ती पाभासण्णा य मर्यभाथोंम |
তহজীগী वि म कमसो बीस तु पहमणा भतिया ।१। इसति गाया-
अभूति कथितस्वरूप॑ यन १५००००००४
श्रयभीजपद सु चतिद । डा हु हुअभज।'' हति शुद्धात्मतत््त-
ब्रकाहाक तृतीयगाथाचतुर्थ पादेत पद्ाश्तिकायान अनसारशमभसारा-
स, सा,|ता, १./१२०/४०८/२१
श्यति
भिधामतप्राथृतत्रयस्याति नीजवद' सुखितभिरि ¦ = 'पृदनी जरातैमबाक'
इत्यावि गाथाओं और तीसरी गाथा “भिक्षम्भा अरः ना के तीन
पदोसे गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संहा, मार्ग भा
अर उपयोगोसे इस प्रकार क्रमते बीस प्ररूषणा कही हैं ।१। श्त्यादि
गाथामें कहा हुआ स्वरूप धबल, जयधबलश और महाधषलं श्रना
मामक जो तीम सिद्धान्त प्रव्थ हैं उसके बीजपदकी सुचना प्रन्थकार-
मे की है। 'सव्बे मुद्धा हु सद्धभशया' इस तृतीय गाथाके चौभे पादे
लुद्ध आध्म तक्तके प्रकाशक पंचास्तिकाय, प्रबचनसार और शमय-
सार इन तीनों प्राभृतोका मोजपद सुधित किया है ।
गो, जो./जी, १./२६६/६४६/२ अत्राहेतुनादष्पै आगमे हेतुबादस्या-
सधिकारात । * अहेतुभाद रूप आगमनिषें हेतुषादका अधिकार नाही ।
हौ तो जिनागम अनमूस्प्ररि बस्तुका स्वरूप कहमेका अधिकार
जानना ।
सू, पा,/पं, जयचन्द|१/५४/४ तहाँ सामाभ्य विशेधषकरि सर्व पदार्थ निका
मिरूपण करिमे है सो आगम कृप (पद्धति) है। बहुरि जहाँ एक
आरमा हो के आश्रय निरूपण करिये सो अध्यात्म है।
रहस्यप्रर्ण चिट्ठी पं, टोडरमल-समयसारादि प्रस्थ अध्यात्म है और
आगमकी चर्चा गोम्मटसारमें है ।
परमार्थ बचमिका पं, बनारसीदास--द्रठ्य रूप तो पुश्वगल ( कर्मों ) के
परिणाम हैं, और भाष रूप पृ्रगलाकार आत्माकी अशुद्ध परिणतिरूष
परिणाम है। बह दोनों परिणाम आगमरूप स्थाप । द्रब्यरूप शो
जीवत्म ( सामाग्य ) परिणाम है अौर भावस्य श्ञान दहन, इश,
ফী आहि अनस्त गुण (विशेष) परिणाम है। यह दोनों परिणान
अध्यात्मरूप जानने ।
२, पंच भावोंकी अपेक्षा
क्षागमभाषयौपक्षमिकक्षायो पद मिक-
क्षामिक भव्यं भण्यते । अध्यारमभादया पुमः लुद्धास्माभिभुखपरि-
णामः चुद्रोषयोग श्प्यादि पर्यायसंज्ञा शभते। -=जागम भावात
औपश मिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक तीन भाग कहे जाते है ।
और अध्यात्म भाषामें शुद्धात्माके अभिमुस्र परिणाम, था शुद्धोपयोण
इत्पादि पर्याय नामको प्राप्त होते हैं। (ब्र, सं,/टी.[४६/-
१६४६ )।
व. स॑ (अधिकार २ की चूलिका/(८४/2 आगमभाषया-*मव्यत्वसंक्षस्य
पारिणामिकभावस्य संभभ्यिमी व्यक्तिर्भण्यते । अध्यात्मभाषया
पुनर्द अ्यदाक्तिरूपशुद्धपारिणा मिकभावविषये भावना भण्यहे, पर्याया-
नामस्तरेण निर्विकल्पसमाधियां हुद्धोपयोगादिकं वेति । = कागत्
भाषासे भव्यत्य संज्ञाधारक जोबके पारिगामिक भावसे सम्मन्ध
रखनेवाली व्यक्ति कही जाती है और अध्यात्म भाषा প্রাহা হজম
शक्ति रूप शुद्धभावके शिष्यमें भावना कहते हैं। श्रश्य पर्याय भामोंलें
इसी दृष्य दाक्ति रूप पारिणासिक भावकी भावसाको लिर्मिकक्ष-
ध्यान, तथा शुद्ध उपयोगादिक कहते हैं।
१. १ंकरुण्क्की अपेका
व. कात. १,।१५१।११७।१४ यदाय॑ जीव: आगमभाषया काशाशि-
लब्धिरूपमध्यात्मभाषयां शुद्यात्माभिमुखपरिणामरूप॑
शभते तदा-*सरागसम्पस्ष्टिभृत्वा---परावितयमंध्यानवहिरणुनसह -
धर्म्यध्यान রর हि
प्राष्य *आबनो॑
प्रप्णोतीत्ति । “जय ग्रह जीव পানি कप शचि कव
और अध्यात्म भाषाते शुद्धारमामिन्ुल परिणाम कूप श्य संवेदन
हानो बरा करता है तव सराग कन्यन्डहि होकर पुराद चर्मा
ध्यानकी बहिरंग सहकाहि कारण रूप জী अनन्त ज्ञाना वि श्वकष श
हैँ शत्यादि भावजा स्मक्षप आरमाजित धर्म प्यानकों शाह करदे आवन
হল ভিন को
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