जैनपदसंग्रह | Jain Pad Sangrah

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Jain Pad Sangrah by पन्नालाल - Pannalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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মলা । ९ সস সপ চল সি জল ভি শপ जोकि जबते० ॥ ই ॥ विषयचाहज्वालतं द,-ह्यो अनंत कालतें सु,-धांबुस्पात्पदांकगाह,-तें प्रशांति आई जबतें० ॥ ४ ॥ या पिन जगजालमें न, शरन तीनकालेम सं,भाल चितभजों सदीव दोल यह सुहाह । जबतें० ॥ ५॥ ८ भज ऋषिपति ऋषभे ताहि नित, नमत अमर असुरा । मनमर्थ-मथ दरसावन शिवपथ इष -रथ-च- क्षुरा ॥ भज० ॥ टेक ॥ जा प्रभु गभठमासपूवे सुर, कंरी सवणे धरा । जन्मत सुरागिर- धर युरगनयुत, हेरि पय न्हवन करा ॥ भज० ॥ १॥ नत ब्रत्यकी व्लिय देख प्रभु, তি पिराग सु थिरा । तबि देवर्षि आय नाय शिर जिनपद पुष्प धरा ॥ भज० ॥ २ ॥ केवलसमय जास वच-रंषिने, जगभरम-तिभिर हरा । घुरग- बोधचारित्रपोतं छदि, भवि भवसिधुनरा ॥ मज ` १ स्य द्रदक्ष्पो भमत अवगाहन करने । २ निना} ३ भादिवाष। अं कामदेवके मथनेबाले| ५ घोक्षपय | ६ इन्द्र | ७ भप्लर। | ८ छोकांतिकदेव < वचनकषपी सूर्मने | १० जहान |




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