कसाय पाहुडं | Kasaya Pahudam

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पं. कैलाशचंद्र शास्त्री - Pt. Kailashchandra Shastri

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फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १३ ) श्रतिस्थापनके हो जाने पर निक्षेप बढ़ता है, अतिस्थापना उतनी ही रहती है। यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि जब तक श्रतिस्थापना एक आवलिसे कम रद्दती है तब तक व्याधातविषयक उत्प कहलाता है और पूरी एक आवलिप्रमाण अतिस्थापनाके होने पर निर्व्याधातविषयक उत्कर्षण होता है। अव्याधातविषयक उत्कर्षणमें अतिस्थापना फमसे कम एक श्रावलिप्रमाण औ्रोर अ्धिकसे श्रधिफ उत्कष्ट आबाधाप्रमाण होती हैं। तथा निक्षेप कमसे कम श्रावलिके अ्रसंख्यातवें भागप्रमाण और अधिफसे अधिक उत्कृष्ट श्रावाधा श्रीर एक समय श्रधिक एक श्रावलि न्यून उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण होता है । व्याधातविषयक जमनन्‍्य अतिस्थापना कमसे कम आवलिके श्रसंख्थातवें भागप्रमाण और श्रधिकसे श्रधिक एक समय कम एक आवलिप्रमाण होती है । तथा निक्घैप मात्र श्रावलिके श्रसंख्यातवें भागप्रमाश होता है। मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम यह स्थिति अ्रपकर्षण आर स्थिति उत्कर्षणका सामान्य स्पष्टीकरण है। आगे मूलप्रकृतिस्थिति- संक्रमकी मीमासा २३ अ्नुयोगद्वारोका अवलम्बन लेकर की गई है श्रौर इसके बाद भु जगार, पदनिछेप, ब्रद्धि और स्थान इन अ्रधिकारोंका अवलम्भन लेकर भी उसका विचार किया है। २३ अ्रनुयागद्वारोंके नाम ये हैं--अद्धाब्छेद, सब, नोसर्व, उत्कृष्ट, अनुत्कृड, जधन्य, श्रजधन्य, सादि, श्रनादि, अब, अभुव, स्वामित्र, एक जीबकी अपेक्षा काल, अन्तर, नानाजोवोंकी श्रपेज्ञा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्प्शन, काल; श्रन्तर, भाव ओर श्रल्पत्रदुत्व | यतः स्थिति जधन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है अतः इन अनुयोगद्वारोके श्राभअयसे विचार करते खमय प्रत्यक श्रनुयोगद्वारको जधन्य और “उ-कृष्ट इन दो भागामें विभक्त किया गया है। तथा स्थितिके च्रजघ्रन्य मेदका अघन्यप्ररूपणाके श्रन्तर्गत और अनुस्कृष्ट भदका उत्कृष्ट प्ररूपणाके श्रन्तगंत विचार किया है। श्रद्धाच्छेदका प्रारम्भ फरते हुए मात्र एक चूर्शिपृपत्त आया दे। शेप मूलस्थितिसंक्रमसम्बन्धी समस्त निरूपण जयधवला टीका द्वारा किया गया ই। उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रमम २८ अनुयोगद्वार हैं। श्रनुयोगद्वारोके नाम वहीं है जा मूलप्रकृति- स्थितिसंक्रमके कथनके प्रसंगसे बतला शआये हैं। मात्र यहाँ एक सन्निकर्ष 'श्रनुयोगद्वार बढ़ जाता है। २४ श्रनुयागदवारोके फथनके बाद भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि श्रार स्थान इन अ्रधिकारोका निरूपण हाने पर उत्तरप्रकृति स्थितिसंक्रम समाप्त होता है । प्रकृतियोकी संक्रमसे उत्कृष्ट स्थिति दो प्रकारसे प्राप्त होती है--एक तो बन्धकी अपेक्षा और दूसरी मात्र संक्रमकी अ्रपेज्ञा । मिथ्यात्वका सत्तर कोड्ाकोड़ी सागर ओर सोलह कषायोंका चालीस फोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट श्थितिबन्ध होता है, श्रतः इनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद क्रमसे दो गआ्रावलि कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर ओर दो आवलि कभ चालीस कोड़ाफोड़ी सागर बन जाता है, क्योंकि उत्कुष्ट स्थितिबन्ध होनेपर बनन्‍्धावलिके बाद उदयावलिंसे उपरितन निपेकोका ही संक्रम सम्भव हैं, श्रतः यहाँ उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेदम अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे दो-दो आवलिप्रमाण स्थिति ही कम हुई हे । किन्तु नो नोकपायोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकोड़ीसागर नदी हाता, इसलिए इनका उत्कुष्ट स्थितिसंक्रम श्रद्धाच्छेद बन्धावलि, संक्रमावलि और उदयावलि न्यून चालीस कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण ही प्राप्त होता है। कारण स्पट है। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उकुद् स्थितिसंकम अ्रद्धाइ्छेद अन्तमुंहूर्त कम सचर को ड्ाकोड्रीसागर प्रमाण ही होता दे, क्योकि जो मिथ्या-




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