अध्यात्मवाद की मर्यादा | Adhyatmvaad Ki Maryada

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Adhyatmvaad Ki Maryada by सुमेरुचन्द्र दिवाकर - Sumeruchandra Divakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ঙ जब तक मनुष्य विषयों में पा रहता है, तब तत्व यह आत्मा को नहीं जानता है। विपयों से विरक्त ' जो योगी है वह बात्माको जानता है । सम्यकत्वी का चिह्न भी वैराग्य भाव वहा गया है । (१२) प्राजक्ल शुद्ध भाव वी चर्चा चला बरतो है, क्तु धुक्ल ध्यान का प्रभाव होनेसे शुद्धभाव की प्राप्ति अ्सभव है । भाव पाहुड में कहां है +- भाव तिविहपयार सुहासुह सुडमेव णामव्व । प्रसुह च प्र्टरद জু धम्म जिणवरिदेहि 1७६] प्र्धात्‌ अशुभ, शुभ तथा शुद्ध रूप से तीन प्रवार के भाव हैं। शात ध्यान, रोद्रध्यान तो भपुभ भाव हैं। धमंध्यान धुभ भाव है । इस पचमकाल में निग्र थ मुनि के धमध्यान का सदुभाव मामा गया है । घुक्लध्यान के योग्य सहनन का भाव है। मोक्षपाहुड में कहा है--- भरहे दुस्समकाले धम्मज्भाण हवेइ साहुस्स । अर्थात्‌ इस पचम काल में भरतक्षेत्र में मुनिराज के धमध्यान होता है । यह भी लिखा है -- अज्जवि ति-रयण-सुद्धा श्रष्पा काएवि लह्‌इ इदत्त । लोयतिय देवत्त तथ चुप्ना गिव्वुदि जति ॥ ৩ ॥ ঘাজ भी रत्लन्रय से विशुद्ध श्रात्मा स्वरूप का ध्यान करके इन्द्र पदवी तथा लौकान्तिक पदवी खौ प्राप्त करके पद्चातु चय करके मोक्षको जात॑ हैं। विलोयपण्णत्ति मं कह्दा है कि दिगम्वर मुनिराज ही लोका तक देव होते हैं । जिस प्रकार अपने विशेष সশুম সানা से श्रेणिक महाराज के जीव का मरक गमन हुप्रा, उसी प्रकार घुभ परिणामों के कारण प्रयय जोव को स्वग में जाना पडता है । (१३) भ्राजक्ल भरत्क्षेत्र में वजवृषभ नाराच-सदहनन नही होता है, प्रत गुक्लध्यान का श्रमाव है । इससे निर्वाण की भौ प्राप्ति नहीं होती किन, [र न्क




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