नागरीप्रचारिणी पत्रिका (१९६७) ऐसी ४३२४ | Nagri Pracharini Patrika (1967) Ac 4324

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कामायनी के मूल उपादान : श्न्ेषण श्रौर विश्लेषण २०५ के श्रामुख में बताया गया है। स्पंदशाख् मे संकल्पारमकता, कर्तृत्व कवा वेदकं तथा विकल्पात्मकता, कार्यता अ्रथवा वेद्य के रूप मे शब्दित और ख्यात है। कर्तृत्व या वेदकं कौ कार्यता या वेद्य सूपातरिव श्रौर श्रमाव में परिणत होते हैं। कतुंत्व अविनश्वर है--अवस्थायुगलं चात्र काय कवुंस्व शष्वितं कार्यता त्तयिसी तत्र कतुंस्वं पुनरक्तयम्‌ ( सपद १-१४) | इतिहास के प्रति भी कवि ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए श्रामुख में कहा है -- “आज के मनुष्य के समीप तो उसकी वर्तमान संस्कृति का क्रमपूर्ण इतिहास ही হীরা ই । परंतु उसके इतिहास की सीमा जहाँ से प्रारम होती है ठीक उसी के पहले सामूहिक चेतना की दृढ़ श्रोर गहरे रंगों की रेखाश्रों से, बीवी हुई और भी पहले की वातो का उल्लेख स्मृतिपट पर श्रमिट रहता दै। खष्टि के श्राविर्माव से मानवी संस्कृति के प्रारभपर्यत एक दीघं श्रतराय है। इस श्रंतरायकाल में भी घटनाएँ श्रवश्य बीती । कामायनी का कथानके श्रौर मानवपिता मनु उरी श्रतराल के घटना और व्यक्ति है। उन श्रतरालवर्तिनी घटनाओं की छाप मानवी स्मृति के श्रवचेतन पटल पर उल्लिखित हो सस्कारो से संबलित दो गर, जिनमे सस्क्ृति के श्रंकु, निकले श्रौर मानव के बौद्धिक, देहिक श्रस्तित्व के बूक्ममतम उपादान गठित हुए। यह छाप उस श्रभिन्न श्रोर मूल चेतना द्वारा पड़ती है जो उस अंतराल में श्रविमक और श्रनभिव्यक्त रहती है, क्योंकि देहघारी, तत्र समावना में ही रहता है। चेतना को मानव शरीर का स्थूल श्रायतन तत्र नहीं সাম हुआ रहता | ग्रतः व्यक्ति के श्रमाय में श्रभिव्यक्ति समव नहीं । कवि के सामूहिक चेतना क उल्लेखे से वह मुन श्रविभक्त चेतना ही श्रमिद्वित है जो श्रागे क्रमिक विकास एव ससरुकृति के अ्रदणोदय मे व्यक्तिशः अभिव्यक्त श्रोर पल्लवित होती दै। इस छाप किंवरा उल्लेख का, रूढ़ विचारों के परिवेश में तरिचित्र और श्रतिरंजित लगना स्वाभाविक है | इस छाप से प्रतिजिंध्रित अकनों का युगानुसारी रुचियों से सामजस्य बेठाने ओर रहस्यान्वेषण के लिये नैरु- क्तिक प्रक्रिया का श्राभ्रय लेना पड़ा | हम यहीं तक सतुष्ट न रद्द श्रुतियों के अनेक श्रनुकुल भाष्य अपनी अ्रपनी रुचियों से करने लगे। शूत््य, प्राण और बुद्धि प्रभति भौतिक और श्रध॑ भौतिक स्तरों से तथ्य संग्रह करती, तक श्रौर विचारणा के अ्रनुषंग से, मानवी चेतना आत्मा कौ सकल्पात्मक श्रनुभूति की ओर बहुथा प्रस्थित दुई, उसे देखा किस किस रूप में यह अवातर प्रश्न है। इस प्रस्थान की पद्धति के उल्लेख हमारे प्राचीन वाडप्य में बहुविध प्राप्त हैं -- इंद्रियेम्यः परोहार्था: अर्थेभ्यश् परं मनः । मनसस्तुपरावुद्धिशुढ रार्मामान्परः ( कठोपनिषद्‌ , & ক্সণ ই वल्ली )। यहाँ आत्मा से इंद्रियपयंत अधोमुखी संत्तरण का श्रंकन क्रमिक महत्ता के रूप में हुआ है | आत्मोपलब्धि परिणामी प्रस्थान ऊर्ध्यमुखी होता ই जिसमे प्राण, मन, बुद्धि आर्मोन्मुखी श्रारोहण करते हैं। आत्मदर्शन के श्रनंतर मन वास्तव में समात्त




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