भाषाविज्ञान | Bhashavigyan

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Bhashavigyan by डॉ भोलानाथ तिवारी - Dr. Bholanath Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रवेश | १ भाषा किसे कहते हैं ? मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने के नाते उसे आपस में सर्बदा ही विचार-विनिमय करना पडता है ! कभी वह शब्दों या वाक्‍्यों द्वारा अपने आपको श्रकद करता है तो कभी सिर हिलाने से उसका काम चल जाता है । समाज के उच्च और शिक्षित बर्ग में लोगों को निमंत्रित करने के लिए निमंत्रण-पत्र छपवाये जाते है तो देहात के अनपढ़ और निम्नवर्ग में निमंत्रित करने के लिय्रे हल्दी, सुपारी या इलायची बाँटना पर्याप्त समझा जाता रहा है । रेलवे गॉर्ड और रेल-चालक का विचार-विनिमय झंडियों से होता है, तो बिहारी के पातर भरे भवन में करते है नेनन ही सों बात ।” चोर अँधेरे में एक-दूसरे का हाथ छकर गा दबाकर अपने आपको प्रफट कर लिया करते हैं। इसी तरह हाथ से संकेत, करतल-ध्वनि, आँख टेढी करना, मारना या दबाता, खाँसना, मुँह बिचकाना तथा गहरी साँस लेना आदि अनेक प्रकार के साधनों से हमारे विचार-विनिमय का काम चलता है। ऐसे ही यदि पहले से निश्चित कर लिया जाये तो स्वादें या गंध द्वारा भी अपती बात कही जा सकती है । उदाहरण क॑ लिए, “यदि मै कॉफी पिवाऊँ तो समझ जाना कि मेरे पास समय है, तुम्हारा काम करूँगा, किस्तु यदि चाय पिलाऊँ तो समझ जाना कि समय नहीं है, काम नहीं करूगा;! या यदि मेरे कमरे मँ गुलाब की अगरवत्ती जजती मिले तो समझना कि तुम्हारा काम हो गया है, किन्तु यदि चंदन फी अगरबत्ती जलती मिले तो समझ जाना कि काम नहीं हुआ है ।' आशय यह कि गंध-इंद्रिय, स्वाद-इंद्रिय, स्पृर्श-इंद्विय, दुग-इंद्रिय तथा कर्ण-इंद्रिय--छल पाँचों ज्ञान-इंद्रियों में किसी के भी माध्यम से अपनी बात कही जा सकती है । यों इनमें पहली तथा दूसरी का प्रयोग प्राय: नही होता; हाँ, किया जा सकता है; स्पर्श-इंद्रिय का भी कम ही होता है । इससे अधिक प्रयोग अखि का होत्ता है, लेपे रेल का सिगनल, गार्ड की हरी या लाल झंडी, सिर हिलाकर ह्‌, या नहीं! करता, आदि । किन्तु इन सभी मे सुबसे अधिक प्रयोग कर्णं इन्द्रिय का होता है ! अपनी सामान्य बातचीत में हम इसी का प्रयोग करते है । वक्ता बोलता है और स्रोता सुनकर विचार या भाव को ग्रहण करता है । कहने को अभिन्यनित के उप््‌मतं पाचों ही प्रकार के साधन भाषा दै, किन्तु सामान्यतः जैसा कि हम आगे देखेंगे, भाषा का इत्तना विस्तृत अर्थ प्राय. नही लिया जाता । परिभाषा अपने व्यापकत्म रूप से तो भाषा वह्‌ साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते हैं तथा अपने विचारों को व्यक्त करते हे, किमनु भाषराविजान. में हम जिस भाषा का अध्यबन- विश्लेषण करते. है, वह इतनी व्यापक नहीं है। उसमें हम उत्त सभी साधनों को नहीं लेते जिनके द्वारा विचारों को व्यक्त करते है और व उसे लिया जाता है जिसके दारा हम सोचते है। भाषा उसे कहते है जो बोली ओर मुनी जाती दै ओर बोलना भी पशु-पक्षियों का नहीं, गृगे मनुष्यों का भी नहीं, केवल बोल सकने वानि मनुष्यों का । भाषा को अत्तेक प्रिभाषाएँ दी गई हैं: (१) भाषा शब्द संस्कृत की भाप धातु से बता है जिसका अर्थ है---'बोलता? या 'कहना' । अर्थात्‌, भाषा वह है जिसे बोला जाय! । , (३) प्लेटो ने 'सोफिस्ट' में विचार और भाषा के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि विचार




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