षट्खंडागम | Shatkhandagam

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Shatkhandagam by हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) करने पर उत्पन्न होते हैं और फिर यहीं पर प्रसंगसे छेदके दस भेंदोंका स्वरूपनिदंश किया गया है| अल्प- बहुत्वमें पांच शरीरोके अविभागप्रतिच्छेदोंक अल्पत्रहुत्वका विचार करके शरीरविस्लसोपचयप्ररूपणा समास की गई है । विस्लसोपचयप्ररूपणा -- जो पाँच शरीरोके पुद्गल जीवने छोड़ दिये हैं और जो औदायिक- भावको न छोड़कर सन्न लोकमे व्यात्त होकर अवस्थित हैं उनकी यहाँ विखसोपचय संज्ञा मानकर विखसोपचयप्ररूपणा की गई है | एक एक जीवप्रदेश श्रर्थात्‌ एक एक परमाणु पर सन्न जीवोसे श्रनन्तगुणे विस्सलसोपचय उपचित रहते हैं ओर वे सब लोकमें से आकर विखसोपचयरूपसे सम्बन्धको प्राप्त होते हैं। या वे पांच शरीरके पुद्गल जीवसे अलग हकर सत आकाश प्रदेशोसे सम्बन्धकों प्रात्त होकर रहते हैं | इस प्रकार जीवसे अलग होकर सब लोकको प्रात हुए उन पुद्गलोकी द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि. कालहानि और মানহানি किस प्रकार होती है, आगें यह बतलाया ग़या है और यह बतलानेके बाद जीवसे अमेदरूप पॉच शरीरपुद्गलोंके विख़सापचयका माहात्म्य बतलानेके लिए. अल्यबहुत्वका निर्देश किया गया है } तथा मध्यमें प्रसंगसे जीवप्रमाणानुगम, प्रदेशप्रमाशानुगम और इनके अल्पबहुत्वका भी विचार किया गया है । इस प्रकार इतना विचार करने पर बाह्यवर्गणाका विचार समाप्त होता है । चूलिका पहले जो अर्थ कह आये हैं उसका विशेपरूप्रस कथन करना चूलिका है। पहले जत्थेय मरदि जीवो! इत्यादि गाथा कह आये हैं। यहां पर सर्व प्रथम इसी गाथाके उत्तरधंका विचार किया गया है । ऐसा करते हुए बतलाया है कि प्रथम समयमें एक निगांद जीयके उलन्न होने पर उसके साथ अनन्त निगोद जीव उत्पन्न होते ह । तथा जिस समय ये जीव उत्पन्न होते हैं उसी समय उनका शरीर और पुलवि भी उत्पन्न होती है | तथा कहीं कहीं पुलविकी उत्पत्ति पहले भी हो जाती है, क्योंकि पृलबि अनेक शरीरोंका आधार है, इसलिए उसकी उत्पत्ति पहले माननेमें कोई बाधा नहीं आती। साधारण नियम यह है कि अनन्तानन्त निगोद जीवोका एक शरीर होता है और असंख्यात लोकप्रमाण शरीगेकी एक पुलवि होती हैं । प्रथम समयम जितने निगोद जीव उत्पन्न होते हैं दूसरे समयमें वहीं पर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते है। तीसरे समयमें उनसे भो असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन जीव उत्न्न होते हें। उसके बाद कमसे कम एक समयका ओर अधिकसे अधिक आवलिके असख्यातवें भागग्रमाण कालका अन्तर पड़ जाता है | पुनः अ्रन्तरके बादके समयमें असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं ओर यह क्रम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक चालू रहता है| इस प्रकार इन निगोद जीवोकी उत्पत्ति और अन्तरका क्रम कहकर अद्भाअल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्वका विचार किया गया है। अद्धाअल्पचहुत्वमें सान्तर- समयमें और निरन्तरसमयमे उत्पन्न होनेवाले जीवोका ग्रल्पवहुत्व तथा इन कालोंका अल्पत्रहुत्व विस्तारके साथ बतलाया गया है । जीव त्रल्य बहुत्वे कालका ग्राश्रय लेकर जीवोंका अल्पबहुत्व बतलाया गया है | इसके बाद स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलिवियोंम जो बादर ओर सूक्म निगोद जीव उत्पन्न होते हैं वे सब पर्याप्त ही होते हैं या अपर्याप्त ही होते हैं या प्िश्ररूप ही होते हैं इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रतिपादन किया है कि सब बादर निगोद जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि अ्पर्याप्रकोंकी आयु कम होनेसे वे पहले मर जाते है, इसलिए पर्यास जीव ही होते है । किन्तु इसके बाद वे मिश्ररूप होते हैं. क्योंकि बादमें पर्याप्त और अपर्याप्त बादर निगोद जीवोंके एक साथ रहनेमे कोई बाधा नहीं आती । किन्तु सूकछ्म निगोद बगंणामें सभी सूक्ष्म निगोद जीव मिश्ररूप ही होते हैं. क्योकि इनकी उत्तत्तिके प्रदेश और कालका कोई नियम नहीं है । इस प्रकार जत्येय मरदि जीवो! इत्यादे गाथाक्रे उत्तराधेका कथन करके उसके पूर्वाधेका विचार करते हुए. बतलाया गया है कि जो बादर निगोद जीव उत्पत्तिके क्रमसे उत्मन्न होते हैं और परस्पर बन्धनके




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