प्रताप प्रतिज्ञा | Pratap Pratigya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
281 MB
कुल पष्ठ :
106
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ह्श्य ] पहला अंक নী
जगमल--कयों न करूँगा कुष्णजी, क्यों न करूँगा ! जगाकर
किर सुलाना चाहते हो वया ? मै तपर सममरहा द । त्राज मेरी
आँखों के आगे से मानों एक गहरा अंधकार धीरे-धीरे सरक रहा
है ! सच कहते हो वीर, मुके इत वीरमपि प जना पेशाचिक
शासन चलाने का कुछ त्रथिकार नही है, सचमुच, कुक अधिकार
नहीं है / आज भाग्य से तुम मेरे दर्पण बनकर आए हो ! तुम्हे
सम्मुख पाकर भी क्या मैं अपना असली रूप न देख पाऊँगा ! दूँगा,
यह मुकुट अवश्य दूँगा । ओर वह भी कि के लिए ? प्रताप /
प्रताप मेरा भाई है-न, न, यह हृदय की दुर्बलता है--वास्तव में
प्रताप बीर है, कर्तव्यशील है, त्यागी है ओर है तपस्ली / हाय रे
अभागे हृदय, उसे पहचान कर भी न पहचान पाया. था ! अच्छा,
यह लो ! प्रजा ঈ प्रतिनिधि, वहुत हो चुका । अब यह अन्याय न
होगा 1 वीरों के राजमुकुट पर मोहांधों का कोई अधिकार नहीं,
बिलापियों का कोई खत्व नहीं ! में आत्मसमर्पण करता हूँ |
( मुकुट और तलवार देता दै । )
चंद्रावत-देव ! जो निर्मल होते हैं, उनका पतन भी सुहावना
होता है और जब वे उत्ते हैं तव उनकी आता के उत्कर्ष के आगे
हिमालय मी तिर मुका लेत है । मेवाड़ के वीर रक्त का यह उबाल,
जितना धन्य है, उससे कहीं अधिक स्वाभाविक है | आज, . बरसों
बाद, सोना मिट्टी से बाहर निकला है | देख, जननी, जन्मभूमि,
ध्यारी माँ, मेवाड़, देख ! आज तेरे सप्तो मेँ उदारता है, न्याय है,
सत्य है ओर ই জান!
( पट-परिबर्तन । )
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