प्रताप प्रतिज्ञा | Pratap Pratigya

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Pratap Pratigya  by मिलिन्द - Milind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ह्श्य ] पहला अंक নী जगमल--कयों न करूँगा कुष्णजी, क्यों न करूँगा ! जगाकर किर सुलाना चाहते हो वया ? मै तपर सममरहा द । त्राज मेरी आँखों के आगे से मानों एक गहरा अंधकार धीरे-धीरे सरक रहा है ! सच कहते हो वीर, मुके इत वीरमपि प जना पेशाचिक शासन चलाने का कुछ त्रथिकार नही है, सचमुच, कुक अधिकार नहीं है / आज भाग्य से तुम मेरे दर्पण बनकर आए हो ! तुम्हे सम्मुख पाकर भी क्या मैं अपना असली रूप न देख पाऊँगा ! दूँगा, यह मुकुट अवश्य दूँगा । ओर वह भी कि के लिए ? प्रताप / प्रताप मेरा भाई है-न, न, यह हृदय की दुर्बलता है--वास्तव में प्रताप बीर है, कर्तव्यशील है, त्यागी है ओर है तपस्ली / हाय रे अभागे हृदय, उसे पहचान कर भी न पहचान पाया. था ! अच्छा, यह लो ! प्रजा ঈ प्रतिनिधि, वहुत हो चुका । अब यह अन्याय न होगा 1 वीरों के राजमुकुट पर मोहांधों का कोई अधिकार नहीं, बिलापियों का कोई खत्व नहीं ! में आत्मसमर्पण करता हूँ | ( मुकुट और तलवार देता दै । ) चंद्रावत-देव ! जो निर्मल होते हैं, उनका पतन भी सुहावना होता है और जब वे उत्ते हैं तव उनकी आता के उत्कर्ष के आगे हिमालय मी तिर मुका लेत है । मेवाड़ के वीर रक्त का यह उबाल, जितना धन्य है, उससे कहीं अधिक स्वाभाविक है | आज, . बरसों बाद, सोना मिट्टी से बाहर निकला है | देख, जननी, जन्मभूमि, ध्यारी माँ, मेवाड़, देख ! आज तेरे सप्तो मेँ उदारता है, न्याय है, सत्य है ओर ই জান! ( पट-परिबर्तन । )




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