परमाद्य तरंगिणी | Parmadya Tarangini

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Parmadya Tarangini by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फ्ध्या, , सरंगिणी २१ | एक ্লানঘেভস্থু জাউবন কই ই। তরি মী বস উমা & ? অন্তির ই) আট ইযনিকি আক্কাঘন नाहीं संते है। बहुरि कैसा है? अनाइल है, जानें कर्मके निमिचततें मये रागादिक तिनिरूरि मई লী আনুতরা মী नाहीं हे। पुरि कैसा है? अंतर्वहिरनते ब्वलव्‌ कहिये अंतरद्ित अविनाशी जैसे होय वैसे अंतरंग तौ येवन्यमापकरि. दैरी- प्यमान अवमे जवे है अर पाच वचनकायफी ियाकरि प्रगट दैदीप्यमान हो है, जन्या जाव ह । बषुरि सदन ..| लिये स्वमावकफरि भया है, काहृने रचा नाहीं है। बहुरि सदा उद्विठासे कदिये निरंतर उदयरूप है विछास जाका | एक्स प्रतिमासमा है । भावार्थ-आचायने प्रार्थना करी है, जो, यद छरूप ज्योतिश्ञानानन्‍्दमप एकाकरार इमारे | सदा प्राप्त रहो; देषा जानना 1 १४ ॥ ए ज्ञाननो नित्यमाता सिद्धिमीप्सुभिः 1 साष्यसाधकमभावेन दिकः समुपास्यतां ॥ १५॥ হাঁ री०-पय आत्मा-चिदूकपः, नित्यं-सदा, समुपास्यतां-सेव्यतां-प्यायतामिदर्थः, फेः? पिि-स्पामोपरलार ध, “सिचिः स्यार्मोपरण्धिरिति वचनात्‌ अमीप्युमिः-पप्तुमिष्छुमिः, कषिमूतः १ सानघनः-योघपिडः, पकः, योदितीयः साप्यसापकभायेन- साध्यश्व साधकश्च पी, ठयोभांवेन-स्वभावेन, स एव आत्मा प्येयकपतया साध्यः, स एष प्यायकर्ूपतया साधकः । नत्यन्य- साप्यः नत्यतयद्च साधकः, तेन स्यक्पेण दिधा- द्विक्षारः ॥ १५॥ अथात्मनसख्ित्यमेकत्यमाद- अर्थ-यह पूर्वोक्त ्ानस्रूप नित्य आत्मा है, सो सिद्धि जो सत्ूपकी प्राप्ति ताके इच्छकपुरुपनिकरि साध्यसा- घकमावके मेदकरि दोय प्रकारकरि एकद्दी सेपनेयोग्य हे, सो सेवो ॥ भाषार्थ-आत्मा तौ झ्ञानस्वरूप एकद्टी है, परंतु याक़ा पूर्णरूप साध्यमाव है अर अपूर्णरूप साधकमाव हे, ऐसे भावमेदकरि दोय प्रकारकरि एक षी सेदना ॥ १५॥ * दरश्शनज्ञानचारित्रेस्त्रितादेकलतः स्वयं । ५ मेचकोभेचकश्चापि सममातमा प्रमाणतः 1 १६॥ * सं० टी०-आत्मा-परमात्मा, समं-युगपत, मेघकः-दिचित्रस्थमाषः, कुत; ? द्रानशानचारिरैः छत्पा जित्यातू-तिस्पमा- पत्थात्‌ । अपि थ, अमेचक;-विचि4रस्वमावरदित;, कुतः १ स्यर्य-स्यतः-पकत्यतः-यकस्वमापत्याद्‌, । नलु यः पकस्वमायः ১+৩৬১৩৬৬৬৩৬৯৩৯৩৬৩৬৬৯৬৬৬১৬৯৯৬১৯৯+৯৯৬ক৯কককক$ককককক কি তত ীব অন্ধ




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