नागरिक-शिक्षा | Nagrik-sisksaha

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Nagrik-sisksaha by रघुनन्दन-raghunandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समानत्र ছু मादि से सीना--सव कुछ उस के लिये दूसरो ने किया है। एक कमीज सहन कर वह अवश्य दूसरो के परिश्रम से लाभ उठा रहा है। यदि मनुष्य अपना हर জ্বাল হন करने लगे, तो शायद उस की शक्ति और प्रवृत्ति का क्षेत्र बहुत द्वी संकुचित हो जाय। चह पञ्चशरो के समान अपनी जीवन-सम्बन्धी आवश्यकताश्रों के अतिरिक्त ओर कुछ नि केर पाए) यदि घोषी हमारे कपडे साफ न करे, यदि चमार जूता न बनाए, यदि घर में हमारी माता रोटी न बनाए, यदि नौकर बरतन साफ न करे, ओर यदि ये सब काम दमे स्वयं करने पडे, तो प्रत्येक बालक सोच सकता है कि उस की पढ़ाई के लिये कित्तना समय मिल सकता है। इंस भ्रकार प्रत्येक बालक के पढ़ाई करने ओर उसके द्वारा चदे वनने मे उन सव धोवी, चमार, तया नौकर प्रादि का पर्याप्त दाथ है। उन सत्र के परिश्रम का उस ने फल उठाया है। इस से यह स्पष्ट है कि मनुष्य का यह असिसान मिथ्या है कि से अकेला रह सकता हूँ। \ मनुष्य तो सदा छोटे छोटे फामो में कौर शआ्त्मरज्षा और चद्धि आदि बड़े बड़े कामी में भी समाज की सह्यायता के आशित है। पशु-पतक्तियों से सनुप्य इस अंश में हीन है| पुरं सनुष्य मे अपनी इस दु्बलता की पूति 'सामराजिक जीवन? से की है । 'सामालिक जीवन पशुओं सें भी है सही, पर उन में इतना सापेत्त नही जितना मरुप्यो मे! दस से जहां मनुष्य की उपयक्त कमी की पूर्ति होती है, वहां इस के जीवन की सारी सरसता, सुस्त, आनन्द झोर माधुय का कारण भी सामानिफ जीवन ही है | समाऊ से हो इसे जीवन मिलता है, समाज से दी बुद्धि एवं शक्ति मिलती है, समाज से हो एस की रा होती है,औओर समाज ही इस की वृद्धि रौर सन्तति का कारण है । सत्तेप में भला ब्यक्ति इस प्यनन्त ससार में सिसके के ज




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