वध्य शिला | Vadhsila

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Vadhsila by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पटला अंक १३ विद्यमान हैं । मित्रावसु की प्रतीत्ता मे मलयवती के मध्याह- कालीन यज्ञवेला का उलद्नन न हो जाए, इसलिये उसे बुला लाओ !” तो तपोवन के गोरी-मन्दिर में जाऊँ। (घूमकर भूमि पर देखकर आश्रय से) रे! इस धूलि में ये किसके पाद-चिह्न है । इनमें तो ष्वक्-चिह्व स्पष्ट दीख रहे हैं । (सामने जीमूत' वाहन को देखकर) ये इसी महापुरुष के पाद-चिद्द हैं। इसके सिर पर उष्णीष सोभा दे रदा है, भोहों के मध्य में भोरी है, आँखे' रक्त कमल के समान ताम्र है, छाती सिंह को नीचा दिखाती है ओर दोनों पेरों पर चक्र-चिह् है । इसलिये मेरा यह विश्वास है कि यह्‌ विद्याधर चक्रवर्त्ती की पद्वी प्राप्त किये बिना विश्रास नहीं लेगा । अथवा सन्‍्देह की आवश्यकता ही नहीं । सचमुच यह्‌ जीमूतवाहन दी होगा । ( मलयवती को देखकर ) राजपुत्री भी यहीं है । ( दोनों को देखकर ) यदि विधाता इस योग्य जोड़े को मिलादे तो चिरकाल के बाद विधि की घटना युक्तकारी होगी | (पास आकर जीमूतवाइन के प्रति ) पका फल्याणं হী! जीमूतवाहन--भगवन्‌ ! जीमूतवाहन प्रणाम करता है । ( उठना चाहता हैः). तपस्वी--रहने दीजिये । उठने की 'आवश्यकता नहीं । अतिथि




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