राष्ट्र - वाणी | Rastra - Vani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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No Information available about श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी - Shree Chakravarti Rajgopalachari
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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'छिखा था--“जब मैं छन्दन की परिस्थिति पर विचार करता हूँ, साथ
ही जव भँ जानता हं ® भारत म खव वात ठीक नहीं हुई है भर दूसरो
सन्पि.में उद्वारता का नाम-निश्ञान भी नहीं है, साथ ही उसके साथ के
संस्मरण भी द्वारा भी आनन्दपरद नहीं हैं, तब मेरे हृदय में निराशा ष्या
होने के लिए कुछ वाढ रह नदीं जाता । क्षितिज तो, जितना सम्भव हो
सकता है, स्वंथा अन्धकारपूर्ण है। यह सब था सम्भव है हि मैं खाली
हाथ छौहूँ। ऐसी ही स्थिति में मनुष्य को निवंठता का भान होता है।
किन्तु दूसरी सन्धि द्वारा द्र ने मेरे छन्द्न जाने कषा भागं सुगम किया
है, इससे मैं आशायुक्त होकर इस यात्रा के छिए रवाना हो रहा हूँ, कौर
ইমা লাম होता है कि महासभा ने मुझे जो भादेश दिया है,पदि उसके
प्रत्ति मैं वेबफ़ा साबित नहीं हुआ, नो जो परिणाम होगा, वह राष्ट्र के लिए
शुभ ही होगा।” इससे उनकी इस समय की मनस्थिति का परिचय
मिल जाता है। इससे यह सिद्ध है कि वे यह লাহা लेकर नहीं गये थे
ছি वहाँ से वे खवराज्य लेकर छोटेंगे। उन्होंने छा विन को, जिन्हें वे
सच्चा अंग्रेज़ मानते थे, समझौते के समय वचन दिया था कियदि स्थिति
अनुकूछ हुई तो मद्दासभा गोलमेज़-परिपद् में भाग छेने को तैयार रहेगी
भौर एस प्रकार वे परिषद् में भवश्य सम्मिलित होंगे। साथ ही वे प्रिटिश
जनता के दिर पर यह छाप बिठा देना और इस प्रकार संसार को यह
दिखा देना चाइते थे कि महासभा ही देश को एकमात्र राजनैतिक प्रति-
लिधिसंस्था है भर वह सहयोग का कोई भी अवसर हायसे जाने नहीं देना
चाहती, यदि सहयोग से काम हो सकता हो, तो यह आवश्यकता से
अधिक पृक क्षण ढे दिष् भी यदध जारी रखना पसन्द नहीं करती और
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