देवी द्रौपदी | Devi Draupadi

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Devi Draupadi by उमादत्त त्रिपाठी - Umadatt Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ ट्वितीय-परिच्छेद । हे শপ ললিপপ न्व यह देख अज्ु न जरा मुस्कराये ओर उन्होंने कहा--आपलोग एक ओर खड़े होकर तमाशा देखिये। मेँ स्वयं सब काम करता हूं । महातेजस्वी कर्ण अजु नसे भिड़ गये ओर मद्रराम शल्य भीम से ! अञ्जन अपने विकट वा्णोकी कर्णपर वर्षा करने खगे । उनके तेज बाणोंकी मारसे कण्कि नाको दम आ गया । कर्णने कहा--हे ब्राह्मण, तुम्हारा बल, अस्त्र चलानेकी योग्यता ओर शीररकी हृढ़ता देख में बड़ा प्रसन्न हुआ। मुझे जान पड़ता है कि तुम स्वय॑ धनुर्वेद हो | मुझे क्रोध आनेपर स्वयं इन्द्र या कुन्ची- पुत्र अजु नको छोड़कर अन्य कोई मेरा सामना करनेवाला नहीं है । अज्जु नने कद्दा--में न तो इन्द्र हूं, न धनुर्वेद। में अस्त्र विदा जाननेवाखा एक ब्राह्मण हँ । तुमको हरानेके छिये ही में युद्धके ` मैदानमे माया हं । यह बातत सुनते ही कर्णने ब्रह्मतेजकी प्रधानता मान ली ओर युद्धसे अपना पीछा छुड़ाया । इधर भीम ओर शल्यमें छात मू कोंसे बेढब छड़ाई हो रही थी। अन्तमें भीमने एक ऐसा दांव चलाया कि शल्य चारों पांव चित्त जमीन पर गिर पड़े । शल्य छज्ित हो गये ओर हार मान डी । यह देख मौर राजा रोग डर गये । उनका साहस न हुआ कि वे युद्ध करे । राजकुमार छोग आपसमें बातचीत करने छंगे--ये ब्राह्मण-कुमार हैं कोन ? किसके लडके हैं ? कहांके रहनेवाले हैं ? आदि बातें मालूम नदीं होतीं। ये बातें जाननी आवश्यक हैं । इधर कऋष्णने भी मोका पाकर कहा--हे नरेशगण, ब्राह्मण कुमारने धमेसे राजकन्याको पाया दै । आप छोग शान्त हों । युद्धकी आव- श्यकता ही कया है ? अन्तमं सबने यद्ध॒ करनेका विचार छोड {या ओर सवने अपने अपने घरकीरा ली । / /




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