स्वामीजी का बलिदान और हमारा कर्तव्य | Swamiji Ka Balidaan Aur Hamara Kartavya

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Swamiji Ka Balidaan Aur Hamara Kartavya  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रद्चेक पदल पर, ऊपने ढंग पर आर अपन तार पर बहुत कुछ विचार किया है और मेरे अपने कुछ मज़बूत खुवाज़ इस विपय में म्वामी जी सदाराज की हत्या के वाद्‌ सभावतः कु “शाम, देश का कतंव्य, एकता का खरूप आर साधन, हिन्दुओं का कतत्य आदि विपयों पर चचा हुई । उनसे छुछ भाइयों की उलमने मुलमी हुई दिखाई दीं। उन्होंने জালছু किया कि में इस अचसर पर अपने विचारों को ज्यों का के सामने उपस्थित करूँ | मेरे दिल से भो आवाज साथ कर बेठे रहना गुनाह है। में अपनी ओछी अत्पत्तान फे साथ इस मदान्‌ और उलमे हुए विपय पर कलम चलाने का साहस कर रहा हूँ। अपनी अयोग्यता ओर अनधि्रार के खयाल से कलम संकोच और দিল के साथ उठी है । आज़ादी, खराज्य, एकता और प्रेम के दैधरीय भाव मेरे सहायक होंगे । > पहले मनुष्य, पीछे दिन्दू-- में अपन को सब्र से पहले मनुष्य, फिर दिन्दुस्तानी, फिर दिन्‍्द , फिर आह्मण मानता हूँ । मेरे नजदीक इन चारों बातों में 1 छिसी प्रकार की विसंगति है, न विरोध । मेरे विचार में हिन्दू-धम में मनुप्यत्व के पूण विकास के लिए काफ़ी जगह ই। इस लिए उसके मुकाबले में दूसरे मज़हब मुझे नहीं जेंचते; पर में उत्तको इसी इच्जत की निगाह से देखता हूँ, जिससे में चाहता हूँ कि थे मेरे धमं को देखें । पूर्वोक्त चिचारक्रम मेरी इसी विचार- १५




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