चंदावेज्झम पइण्णय | Chandavejjhaym Painnaym
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
120
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ९
किन्तु जहाँ तक इस ग्रन्थ के रचना काल का प्रदन है, हम इतना तो
सुनिश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह ईस्वी सन् की ५वीं शताब्दी के
पूर्व की रचना है क्योंकि चन्द्रवेध्यक का उल्लेख हमें नन््दीसूत्र एवं पाक्षिक
सूत्र के अतिरिक्त नन्दौ चूणि, आवश्यकं चणि, ओर निशीथ चूणिर्मे
मिलता है । चूणियों का काक कगभग ६-७वीं शताब्दी माना जाता है।
अतः चन्द्रवेध्यक का रचना काल इसके पूर्व ही होना चाहिए। पुनः
चन्द्रवेध्यक का उल्लेख नन्दी सूत्र एवं पाक्षिकसूत्र मूल में भी है। नन््दी सूत्र
के कर्ता देववाचक माने जाते हैं। नन्दी सूत्र और उसके कर्ता देववाचक
के समय के सन्दर्भ में मुनि श्री पुण्यविजय जी एवं पं० दलूसुख भाई
मालवणिया ने विशेष चर्चा को है। नन्दी चूणि में देववाचक को दृष्यगणो
का शिष्य कहा गया है। कुछ विद्वानों ने नन्दीसूत्र के कर्ता देववाचक भौरो
आगमो को पुस्तकारूढ़ करने वाले देवद्धिगणी क्षमाश्रमण को एकह
मानने की भ्रांति की है। इस भ्रांति के शिकार मुनि श्री कल्याण विजय
जी भी हुए हैं, किन्तु उल्लेखों के आधार पर जहां देवद्धि के गुरु आर्य
दांडिल्य हैं, वहीं देववाचक के गुरु दृष्यगणी हैं। अतः यह सुनिद्चित है
कि देववाचक और देवद्धि एक ही व्यक्ति नहीं है। देववाचक ने नन्दीसूत्र
स्थविरावली में स्पष्ट रूप से दृष्यगणी का उल्लेख किया है।
पं० दलूसुख भाई मालवणिया ने देववाचक का फारू बीर निर्वाण
संवत् १०२० अथवा विक्रम संवत् ५५० माना है किन्नु यहं अन्तिम अवधि
ही मानी जाती है । देववाचक उसके पूर्वं ही हुए होगे । आवक नियुक्ति
मे नन्दी भौर अनुयोगद्वार सूत्रों का उल्लेख है, और आवश्यक नियुक्ति
को द्वितीय भद्रवाहु की रचना भी माना जाय तो उस्तका काल विक्रम की
पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्ड ही सिद्ध होता है। इन सब आधारों से यह
सुनिश्चित है कि देववाचक और उसके द्वारा रचित नन्दी सूत्र ईसा को
पाँचवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की रचना है। इस सन्दर्भ में विशेष जानने के
लिए हम मुनि श्री पुण्यविजय जी एवं पं० दलसुखभाई मालवणिया के
नन्दीसूत्र की भूमिका में देववाचक के समय सम्बन्धी चर्चा को देखने का
निर्देश करेगे ! चकि नन्दीसूत्र मे चन्द्रवेध्यक का उल्लेख है, भतः इस
प्रमाण के भाधार पर हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ
ईसवी सन् की ५ वीं शताब्दी क पूवं निमित हो चुका था। किन्तु इसकी
रचना की उत्तर सीमा क्या हो सकती है, यह कह पाना कठिन है।
चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक की अनेक गाथाएँ आगमों में--उत्तराध्ययन, ज्ञाता-
धर्म कथा और अनुयोगद्वार में, निर्युकियों में--आवश्यक नियुक्ति, उत्तरा-'
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