श्री सम्यक्त्व सार शतक | Shree Samyakatv Shatak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
424
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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भी +
नीति विचार पर चलाने वाले श्षपनी खी को शुद्ध आवनासे
प्रसन्न करने वाले अपने इप्टदेव के नेत्रो में दशोन करने वाले
अपने इष्टदेव को रोम २ मे बसाने वाले अपने सतगुरुदेंव
का सच्चे दिल से तन, मन, घन, प्राण अपेण करने वाले
चलते फिरत सोते जागते खाते पीते चोलते आदि सब कास
करते हुये मी अपने सतगुरुद्ेव इप्टदेव में' पूर स्थिति रखने
बाते दुराचार का मिटाकर सदाचार मेँ दढ रने वाले क्योकि
यह शरीर वार वार नहीं प्रात्र हाता ह पर विचारकरो कि इस
संसार को बेद शास्त्रों ने अनादिकाल से बतल्ाया है ओर इसके
भोंग भी अनादिकाल से चले आरहे हैं ओर तभी से आपने
पति पतनी धन कर चौरासीलाख योनियों में भोग ही तो भोगे
पर विचार करो कि आप पति पत्नी को कभी सन्तोपमी
हुवा, आपको इन चीरासी लाख योनियों में सुख शान्ति नही
मिली ते च्या उस मदुप्ययोनी में भिल सकती द नदी मिल
सकती | प्रेमी पाठकी यह भनुष्य योनी केवल भोगो कै लिये
नहीं मित्री यह तो भोगोंको ख़त्म करने के लिये सिल्री है। आप
विचार करके देखो कि आपके यह भोग विपय खुजली के
समान हैं जैंसे २ खुजली को खुजावोगे वैसे ही खुजली आपको
प्रिय मालूम ह।गी, परन्तु खुजाते रहने से उसमें कौह (जखम)
होजाते हैं फिर बड़ा कप्ट होता है यही आपके विपय भोगने
का हाल है| जैसे २ विपय भोगों को भोगते हो दिन रात वैसे
हू खुजली की तरह दिन व दिन विपयभोग बढते ही जते
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