श्री विचारसागर | Shri Vicharsagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सभर, 1 '॥ प॑चमावत्तिकी अस्ता्वना || १६५ ॥ श्र॑यत्री जिद्द्‌ ॥ इस ग्रैथकी चतुथोशत्तिकी जिल्द देखनेंतेंही निश्चय होताथा कि श्रीपंचदशीसटीकासभापा द्वितीयाइतसिकी जिरुदकी नन्‍्यांई वह जिद्द्‌ वी महासुंदर चित्ताकर्पक औ उन्चमअर्थवान्‌ कर- नेमे अत्य॑तद्रव्यखय ओ परिश्रम कियाथा ॥ परंतु खेद है कि अबकी बार हम इस ग्रन्थ- की पश्चमाशत्तिकी जिद बहुतही परिश्रम और ' बड़ा भारी द्रव्य खर्च करनेपर भी वैसी न बना सके, जैसी कि चतुथोवृत्तिमें बनाई थी; क्योंकि कागज, स्याही, रेम, कपडा, कारीगर आदि जिल्दकी महासुंदर और नयनमनोहर बनानेके साधन जैसे चाहिये वैसे इसवक्त नहीं मिलसके, इसलिये हम आशा करेते हैं कि पाठकगण सिर्फ जिल्दकी थोडीसी ब्रुटिकों देखकर नाराज न होंगे किन्तु क्षमाही करके पहिले जैसाही उदार मनसे आश्रय देंगे. 'पदाथेगत सुंदरता तिस पदार्थविपे प्रीतिदं उत्पन्न करेंहे औ जहां प्रीति होवे तहां प्रषृ्ति यी अवद्य हवै यह सामान्य नियम है। सुदरता चित्ताकर्पणकी हेतु है औ “जहां भ्रीति- सहित चित्ताकर्पण होवेहे तहां प्न्ृत्तिकी पुन- राटृत्ति ोवैहै यह बी नियम है । जहां बारं- चार प्रवृत्ति होने तहां अधिकच्ढता थी देवै है। इसरीतिसें सुंदरताका उपयोग है । रूपकी सुंदरताके साथि कोई उत्तमअथऊू जोडनैंमें आबे तो सुंदरतानिमित्त चित्तकी ` ग्रवृत्ति होतेही तिसके साथि अनुस्यूत्त किये- हुवे उत्तमअथैरू मलुष्यकी बुद्धि अनायाससें ग्रहण करिलेवे यह स्वाभाविक है | इस हेतु लक्ष्यमँ राखिके हमारे ग्रंथोंकी जिलल्‍्द ऊपर छापेहुवे चित्र सात्रसुंद्रतासंपादनाथे नहीं । परंतु सुंदरताके साथि अतिगंभीर জী उत्तम- भर्थके स्मारक होनें इस हेतुसे दियेजातेह ॥ ; इस भरंथकी जिर्द उप्र जे चित्र है हिन- विपि जो अकी करना करीरै, सो नीचे दशौबतेहैः-- ॥ “गजेन्द्रमोक्षका লিলা ॥ यह चित्र देखनेस जान्याजावैगा कि सरो- वरविंपे गजराजई एक ग्राहन वहुतबलपूर्वक ग्रहण कियाहै ओ सो गजराज ग्रसनस मुक्त होनेअथ अत्यंतबल करताहै, इतनाही नहीं । परंतु गजराजका ऊुटुवपरिवार आपफथापकी झुंडादं- डसे तिस गजराजईू बाहिर खींच लेनेमें अत्यंत्त- परिश्रम करताभया ॥ ऐसें दीर्धप्रयत्लसे थी अपना मुक्त होना अशक्य देखिके सी गजराज सरोवरविपै उत्पन्न हुये अंबुजोमैंसे एक तोडिके झुंडसे मस्तकठपरि धरिके, जब मक्तिभावपूर्वक श्रीविष्णुकी प्राथैना करतामया, तव॒ स्तुतिसै আমল हुवाहै अंतःकरण जिसका ओ परमदयाङ ই स्वभाव जिसका, देसे श्रीविष्णुभगवान्‌ आपके चक्रमे तत्का गजेद्रका ग्राहतें उद्धार करतेभये ॥ इस कथाभूतरूपकविये जो उत्तमसाराथे गूढ रह्माहै। सो यह हैः-- गजराजरू तो अज्ञानी जीव, ग्राहक तो महामोदरूप माया ओं सरोवर तौ अपार दुस्तर संसार समजना ॥ जैस सरोवरविये रमण करताहुया गजेंद्र आहसें ग्रस्त भयाहै, तेसें संसारविंपे रमण करताहुया यह अज्ञानीजीव म्वलप्रधानमहामोहरूप मायासें ग्रस्त होवैहे॥ जे गजराज आपके ओ अन्पहस्तिनके बलसें वी छूटनेझू असमथ भयाहै। तेंसें यह अज्ञानी जीव वी केवल अपनी बुद्धिके बलसें वा मंत्र- कर्महठयोगादिक वाह्योपचारस पुक्त दोनेहू असमथे होनैंदे । परंतु बेंसे गजराज हसरिस्तुति- से श्रीहरिकूं असन्न फरिकके तिनोंके फेंकेहये चक्रकी सहायात युक्त इवा तैसे यह अज्ञानीजीब




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