विनय पत्रिका | Vinay Patrika

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Vinay Patrika by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३७ ( रख-ग ); - श्रीगुरुचरणो शरण मम „ ४ होक्तिकायै ददौ प्रीत्या शीतलं चीरमुत्तमम्‌। त्र० पु० ॥? सो. भकतापराधसे वह स्वयं भरम हो- गई और प्रह्मदजीको आग शीतल हो गई । उन्होंने पितासे कहा,-रामनामजपतां कुतो भयं, सवतापशमनेक्रमेषजम्‌ | पश्य तात मम गाव्रसन्निधौ, पावकोऽपि सलिलायतेऽधुना ॥ ( 'चित्तसम्बोधनम्‌ः से उद्धृत) अर्थात्‌ सम्पूर्ण तापोंका नाश करनेवाले एकमात्र ओऔषध रासनास! के जापकको किससे भय हो सकता है. ? हे तात ! देखिए मेरे शरीरको समीपवर्ती अग्नि भी जलके सम्रान शीतत्न हो गईं है। पुनश्च यथा 'तातैप वह्धिः पबनेरितोडपि न मां दह॒त्यन्न समन्‍्ततोडहम्‌। पश्यामि पद्मास्तरणास्तृतानि शीतानि सर्वाणि दिशास्मुखानि ॥? (व्रि० पु०१1१७४७) 1 अर्थात्‌ हे तात ! पवनसे प्रेरित यह अग्नि भी मुझे नहीं जल्लाती | मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती ह, मानों मेरे चारो ओर कमलके पदे ठेगे हयँ हिरण्यकशिपु जव स्वयं तलवार ल्लेकर उन्हें सारने चला तब भगवान्‌ वहीं खम्भसे प्रकट हो गये और हिरस्यकशिपुको ही वध कर डाला | हिरण्यकशिपुने प्रह्मदके मारनेके अगशणित उपाय किये थे ज्ञो सभी निष्फत्न हुए, यह सभी जातते हैं। २(ग) बैर करके अनेक उपाय मारनेके करनेपर भी बेरी कुछ कर न सका, भगवद्धक्तको मार न सका,--इसके छः दृष्टान्त दिये, प्रह्माद, गजेन्द्र, विभीपण, ध्रव, अंबरोप ओर पांडव । इनमें प्रह्दजी को प्रथम कहा, क्योंकि एक तो देत्यकुलोद्धव होनेपर भी ये अद्वितीय नामानन्य प्रेमी भक्त हुए । गोस्वासीजीने लिखा है--सेवक एकतें एक अनेक भए तुलसी तिर ताप न डाढ़े। प्रेम बदी प्रहलादहिको, जिन पाहनते परमेश्वर काढे | क० ७)१२७॥ दूसरे, ये निष्काम भक्त थे। भगवान्‌ नृसिहके वरोंके प्रज्ञोभन देनेपर भी इन्होंने उत्तर दिया था कि जो सेवक आपसे कामनापूर्तिकी इच्छा रखने- वाले है वे सेवक नहीं हैं, वे तो कोरे व्यापारी हैँ,--यस्त आशिष आशा- स्तेन स धभृत्यःस वे वणिक्‌ | भा० ७१०४/ तीसरे, केवल हरिभक्ति करने हरिकीतेन करने, नाम जपनेके ही कारण इन्हें अनेक कष्ट भेलने पड़े | चोथे, इनको कष्ट देनेवाला भी ऐसा था कि जिससे तीनों ज्ञोक काँपते थे उस हिरण्यकशिपुसे त्रेल्ोक्यमें इनकी रक्षा कोई न कर सकता था, ऐसा “-अलोक्यविजयी भी इनका'वाल न बॉका कर सका | पाँचवें, इनको सार डालने के लिये एक भी उपाय उठा न रकखा गया, अगशित उपाय ओर वे भी प्रकट रूपसे किये गये । इतना कष्ट आजतक किसी ओर भक्तको शायद ही दिया गया हौ । इतने उपाय क्ये जानेपर भी प्रह्ादके चित्तमे मलिनता




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