देव ग्रंथावली (लक्षण -ग्रन्थ)- भाग 1 | Dev Granthawali (Lakshan-granth) Khand-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विपय-प्रवेण ७
का न्यून होना पाठ-मिश्रण की अपेध्ा इन प्रतियो मे किसी प्रकार के प्रतिलिपि-सम्बन्धके
कारण अधिक सम्भव है । इससे भी हमारी उपरोक्त धारणा पुष्ट होती है कि इन प्रथो मे छन्द
के आगम का आधार कोई केन्द्रीय सग्रह रहा होगा, जिससे कवि के आदेश पर उसके किसी रिप्य
अथवा प्रतिलिपिकार ने छन्दो को समाविष्ट किया होगा ।
(२) यदि देव का एक छन्द उनके तीन ग्रथों मे भी आया है तो इन तीनो ग्रथो मे छन्द
के एक ही स्थल पर पाठ-विकृतियां मिलती है । यह् भी केवल पाठ-मिश्रण के कारण सम्भव नही
हो सकता । यदि विभिन्न ग्रथो के समाव छन्द किसी लिखित संग्रह से न लिये जाकर सर्वथा
स्वतन्त्र रूप से आये होते तो एकं ही निरर्थक विकृति एकाधिक ग्रथों की अनेक प्रतियो मे क्यो
भिलती अथवा इन प्रतियोमे एक ही स्वल पर विक्रृति क्यो उत्पन्न होती । स्थान-सकोच के
कारण मै ऐसा केवल एक उदाहरण दे रहा हँ---
भन भावन के' छन्द का अन्तिम चरण है “तिय वारहि बार सँवारहि के निरवारति बार
किवार दिये।” छल्ठ मे के लिए' के मलिन सूय मे 'के' आया है परन्तु 'भाव विलास' (४ ३१)
की का० सा० प्रतियों एव “रस विलास' (८ १४) की ब्र० प्रति मे 'सेंवारहि की” पाठ है, भाव
विलास' की भा० एवं 'रस विलास' की सा० प्रति “দানি হী” पाठ है, 'भाव विलास' की
ज० प्रति में मँवारहि केश” तथा भुजान विनोद' कौ का० प्रति मे ्वँवारति वार
पाठ है। यह सभव नही है कि इस सभी प्रतियों मे एक ही स्थल पर एक-दूसरे मे पाठ-मिश्रण
हुआ हो । पाठ-मिश्रण की एक सीमा होती है। इस उदाहरण से यह प्रगट होता है कि यह् छन्द
जिस प्रति मे था या तो उसमे इस स्थल पर कवि द्वारा पाठ-सशोवन हुआ था अथवा अपठ होने
के कारण या लिपि मे भ्रम की सम्भावना होने के कारण यहाँ प्रतिलिपिकार को भ्रम हो सकता
,था। दोनो दी प्रकार से छन्द के आगम के केन्द्रीय आधार की सम्भावना पुष्ट होती है ।
“सुख सागर तरग' मे समान छन्दा की तुलनात्मक सूची देखते हए हमे यह् ग्रथ मी इसी
सम्रह-ग्रथ का सकलित-सुसयोजित सस्क्ररण लगता है। जो भी हो, किसी निश्चित निष्क्प पर
पहुँचने के लिए इस पर और अधिक गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
इन सभी प्रत्नो का समाधान सुख सागर तरग' के दोनो सस्करणो क सम्पादन के वाद
ही मिल सकता है क्योकि यह महत्त्वपूर्ण ग्रथ कवि की रचनाओ में एक रहस्यवृर्ण कडी है।
छन्दो का परस्पर श्रादरान-प्रदान
मध्य युग के अनेक कवियों मे अपने एक ग्रथके छन्दो को दूसरे ग्रथ मे सम्मिलित
करने की विशेषता पायी जाती है! तुलमीकृतं दोहावली कै दोहे इस कवि की अन्य कृतियो
मे भी मिलते है, कवि ঈয়নহাল के अनेक छन्द उनके दो-दो ग्रथो मे मिलते है और मतिराम
के (ललित लनाम के अनेक दोहे उनक्री 'सतसई' में पाए जाते है। इम प्रकार अपने ही छन्दो
को एकाधिक ग्रथो में रबने की प्रवृत्ति अकेले देव मे नही अन्य कवियों में भी पायी जाती है।
नवीन ग्रथ तैयार करने की आवश्यकता भी इस प्रवृत्ति के मूल मे विद्यमान एक कारण
हो सकता है परन्तु इससे अविक संगत कारण सम्भवत्त यह था कि एक ही छनन््द एकाधिक लक्षणो
का उदाहरण हो सकता या। देव ने इन दोतों ही कारणो से अपने छुन्दों को एकाधिक
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