अकाकी कुञ्ज | Akaki Kunj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)राजपूत की हार १६
“कुलीना
सराहती थीं, आ्राज भेरे दुर्भाग्य, पर शोक कर रहो
होगी ।
: महामाया ! मेरी बच्ची | - -
महामाया : (भर्राए हुए स्वर मे) अगर वह राजपूत था, अगर
জুলীলা
उसने वीर माता का दूध पिया था, अगर वह राजपूत
सिहनी की गोद में पलकर युवा हुआ था, तो उसे चाहिए
था कि रण-भूमि में डट जाता, मृत्यु के भय को पाँव-
तले मसल डालता और ससार को दिखा देता कि
राजपूत का बच्चा मृत्यु और जीवन दोनो को समान
समभता है। माँ ! में समझती थी, मेरा पति सूरमा
है । मेरा खयाल था, वह आदर के जीवन और प्राद्र
की मृत्यु दोनों की व्यवस्था जानता है, मगर (दीघ॑
नि.श्वास लेकर) हाय शोक ! यह मेरी भूल था--वह
हारकर भी, अपनी और दूसरो की दृष्टि से লণলা-
नित होकर भी, जीवित रहना चाहता है '
मेरी बच्ची ! जोश में न आ। इससे कुछ प्राप्ति व
होगी श्राज्ञा दे कि किले के द्वार खोल दिये जाए ।
आठ दिन द्वार पर पडे रहना साधारण दण्ड नही है ।
सहामाया * साधारण दण्ड नही है ! माँ, राजपत के बेटे के
लिए हारकर भाग आना ऐसा पाप है, जिसका कोई
प्रायश्चित्तनही । यदि मेरी आँखें यह दुदिन देखने से
पूवं सदा के लिए बन्द हो जाती, तो में इसे अपना
सौभाग्य समझती ।
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