अजहुं दूरी अधूरी | Ajhun Duri Adhuri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
282
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मुरतीदादा के घर से या और कहीं से दो टोपसी छाछ ले आ। उसमे लोटा पानी, मुट्ठी
आटा, चिबटी हल्दी और दो ककरी नमक पडा कि कट्ढी तैयार। अपने को आम खाने
कि पेड गिनने? उतावली-सी जा तू।
दादी चसक एक घर नहीं मिली तो दूसरा घर और घोकूगी, बाजरी खोटने भी दूसरे
ही घर जाना होगा, इससे तो अच्छा है, रोटियाँ ही सेकले ।'
चाहती तो मै भी यही हूं बेटी, पर कानी के ब्याह मे सौ जोखिम, घर में आटा भी
तो नहीं इतना? पाव-आटा उघार भी ले आऊँ तो भी काम कौनसा पार पड गया?!
स्यो दादी?
साग के लिए चार पापड भी तो चाहिए? छींक के लिए तेल की बूद भी तो नहीं, डिब्बे
का पैंदा अभी सभाला है मैंने । पैसा पास में नहीं, बाप तेरा आएगा अन्धेरा होने पर, फिर
कब सामान आया, कब रतोई बनी, तू ही बत्ता?'
भिरच भी तो नहीं दादी।!'
तभी तो कहती हूँ छाछ ले आ तू।'
ले दादी, घोडी देर भाई को सभाल तू मैं छलाग भरती, अभी लाऊँ छाछ।'
बेटी, भाई को तो तू ही लेजा, इस बूढे ने अधमिट ही मुझे बतिया लिया इत्ते मे तो
रेत यह दो बार फाक लेगा, और मैं फिर क्या कर लूगी, उगलियाँ तो मेरी पहले ही बेकार
कर रखी है इसने { दिनभर रखा तो अघ-घडी ओर रख बेटी ।'
उसने भाई को उठाया ओर त्िलवर का लोटा लिए चलदी।
कुछ दूर चलने पर वह सेठ रूपजी के मकान के पास से गुजरने लगी । फाटक की
तरफ देखती पलभर वह रुक गई। सोचने लगी, 'काम यहीं बन जाए तो कितना अच्छा,
ती छरू ओर उन्टीं पैरो वापिस !' फाटक की अर्गला पर हाय उसने रखा ही था, उसकी
स्मृति पर सहता कछ एता रग कि अर्गला उसने तुरत छोडदी ! चेहरे पर उसके आकोश
और विश्षृष्णा चमक उठे। वह जल्दी-जल्दी आगे बढ गई।
बात यह थी कि महीने-सवा महीने पहले, सुबह-सुबह ही दादी-पोती इस घर के पास
से निकल रही थी। सेठानी फाटक पर खडी थी। इन्हे देखते ही आवाज दी, गगी बाई,
सुनना जरा ।!
गगी मुडी, पास आकर कहने लगी, 'फरमावो सेठानीसा?'
জাজ तो धोडी तकलीफ दूगी।'
'धोडी क्यो ज्यादा दो, हाजिर हूँ।'
“छोरी का विदाह हो लिया, बारात विदा “ए »ज चौथा दिन है। गलियारा इत्ते दिन
से ओधे-मयि पडा है, पैर रखने को जी नहीं करता 1 नाइन से कहते-कहते जीभ दुखने
लगी कान ही नहीं देती | मैंने तो कह दिया मत `, वेटी जेठ के भरोसे तो जामी नही,
तू नहीं त्तो त्तेरी बहन कोई और आएगी, पर तू अब मेरी पौरी पघारने की कृपा ही
'रजना। दादी-पोती बुहार-झाडकर गलियारा ढग का करदो, साग-पात और पूरिया दूगी,
किया कहीं जाएगा नहीं, कभी और भी राजी करूगी |!
अजहुं दूर उघूरी 19
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