कौरवी | Kauravi

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Kauravi by सुरेन्द्र कौशिक - Surendra Kaushik

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कौरवी क्षेत्र के प्रमुख मेले मेले अर्थात मेल मिलाप। जब किसी निश्चित तिथि एव समय पर लोग स्वत एकत्रित हो जाते हैँ ओर इस सामूहिक मिलन के पार्श्व मे एक ओर धार्मिक पक्ष जडा रहता हे वर्हो दूसरी ओर व्यापार क्रय-विक्रय पारिवारिक सम्बन्धो को भी प्रगाढ किया जाता है। हमारे देश मे पैंठ या हाट मेले का प्रारम्भिक रूप है। यह सामयिक मेले प्राय धार्मिक उत्सवो कृत्यो परम्पराओ या मौसम से सम्बद्ध होते हैं। कुछ मेले जन सौहार्द के लिये तो कुछ व्यापारिक दृष्टिकोण से आयोजित किये जाते है। सास्कृतिक आदान-प्रदान के लिये भी मेले एक सशक्त माध्यम हैं। स्वस्थ मनोरजन तो प्राप्त होता ही है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के बाद जब भारत को अग्रेजी राज्य मे सम्मिलित किया गया तो अग्रेज प्रशासको ने जहाँ प्राचीन मेले लगते थे प्राय उन्ही मेलो को नुमायश अथवा प्रदर्शनी का रूप दे दिया जिससे दूर दराज के लोग देश के अन्य उत्पाद को सुगमता से क्रय-विक्रय कर सके | प्राय जन मानस इन मेलो मे सामूहिक रूप से बैलगाडी भेंसा बुग्मी इक्के घोड़ा तागा अथवा ट्रैक्टर ट्राली मे लोक गीत गाते हुए हर्षोल्लास से जाते हैं। मेलो के अवसर पर दगल घुडदौड सर्कस झूले स्वाग नौटकी पशुओ एव कुटीर उत्पाद का क्रय-विक्रय आदि का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यहाँ तक कि लडके-लडकियो के विवाह सुगमता से तय हो जाते हैं। नौचन्दी का मेला जनपद मेरठ का सर्वाधिक प्रसिद्ध मेला नौचन्दी है। यह मेला वर्ष 1884 मे प्रारम्भ हुआ था। प्राचीन काल से ही इसके आयोजन का समय निर्धारित है। यह मेला होली के बाद एक रविवार छोडकर उससे अगले रविवार से लगता है। मेला हिन्दू-मुस्लिम में एकता का प्रतीक माना जाता है। यहाँ शक्ति का प्रतीक नवचण्डी मदिर है। नौचन्दी के समय मे ही नवरात्रि के व्रत भी चलते हैं। सडक के एक तरफ नवचण्डी का मदिर है तो दूसरी ओर हजरत वाले मियाँ की मजार। सूफी सन्त परम्परा के अनुसार मजार पर प्रत्येक वर्ष उर्स होता है और भक्तिपूर्ण कव्वालियाँ चलती हैं। कुछ लोगो का मत है कि चण्डी की शक्ति नौ वाहिनी के रूप मे प्रगट हुई। उसी पर मेले का नाम नौचन्दी पडा। कुछ लोगो के विचार से मेरठ और टिहरी गढवाल ने [10]




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