श्री भगवती सूत्र पर व्याख्यान : भाग 3 | Shri Bhagvati Sutra Par Vykhyan - III
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
405
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्रीभगवतों জে [७४२ ]
केबल मात्र उतुर्थ अंग को स्वीकार करने का कारण है
जीव का स्वभाव । जीव अपने स्वभाव से समस्त आत्म प्रदेशों
फे छार। एक क्षेत्रावगाढ़ कर्म पुदूगलों को, जो एक समय में
वेधने योग्य हो, षोघता है । श्रत्व एक काल में किया जाने
वाखा कातता मोहनीय क्म, जीव सवं से सव को करता है ।
इसीलिप्ट तीन अंगों का निषेघ करके यहाँ सिफे चोथा अंग
अंगीकार किया है |
थवा --जिन शआाकाश-प्रदेशों में जीथ का अवशगोइन दो
रहा है--जिस क्षेत्र में आत्मा के प्रदेश विद्यमान हैं, उसी
आकाश प्रदेश में रहने वाले कर्म-पुदूगल एक-शेत्रावगाढ़ कद
लाते हैं । ऐले ही कम-पुदूगलों को जीव समस्त प्रदेशों से
अपने में एकमेक करता है । झिस हेतु से आत्मा कमे करता दै,
घद्द हेतु सभी कर प्रदेशों का है। इस्त प्रकार समस्त आत्म
प्रदेशों द्वारा, एक समय में बंधने योग्य समस्त कमे पुद्गल
को बाँघने के कारण कांक्ष.मोहनीयथ सर्वे से सवेकृत हैं ।
कई गंथकारों का मत है कि जीव के आठ प्रदेश खालो
रहते हैँ--घहाँ कम का बंध नहीं होता, लेकिन शारत्र में ऐसा
कथन उपलब्ध नदीं दै ।
यह खमुच्चयय का प्रश्नोसर था, अब दंडक-विशेष को
प्राश्चित हरएके प्रश्व किया जाता दै | गोतम स्वामी कहते हैं...
भगवन् ! नेंटिक कांच्छामोदनीय कमं कया उनका किया हुआ है ?
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