मानव चक्र | Manav Chakra

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Manav Chakra  by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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6 मानव-चक्र भौतिक कारणोंका पता लग जाता है तो हम संतुष्ट हो जाते हैं और इससे आगे अनुसंधान करनेकी चिंतामें नहीं पड़ते। परंतु वेदिक-कालीन लोग इसके भौतिक कारणोंपर कोई ध्यान नहीं देते थे अथवा केवल गौण हूपसे ही ध्यान देते थे; वे सबसे पहले और मुख्य रूपमें सदा इसके प्रतीकात्मक, धामिक अथवा मनोवैज्ञानिक महत्वको ही खोज करते थें। वेंदके पुरुप सूक्तमें चतुर्वणका वणेन है। वहां ये चारों विभाग स्रष्टा देवके शरीरसे, उसके सिर, बाहुओं, जंघाओं तथा पांवोते प्रकट हुए बताये गये हैँ। आज तो हमारे लिये यह कोरी कवि-कल्पना है और इसका भाव यह लिया जाता है कि ब्राह्मण ज्ञानी होते थे, क्षत्रिय शक्ति-संपन्न, वैश्य उपज करनेवाले एवं समाजकों आथिक अवलंब देनेवाले तथा झृद्र समाजकी सेवा करनेवाले; मानों यही सव कुछ हो, मानों उस समयके लोग ब्रह्मके शरीरके विपयमें अथवा सूर्याके विवाहोंके संबंधर्में कोरी काव्यमय कल्पनाओंके प्रति इतनी गंभीर श्रद्धा रखते थे कि केवल उन्हींके आधारपर उन्होने कर्मकांड तथा रीतियोके एेसे सुव्यवस्थित विधान, चिरस्थायी संस्थाएं, सामाजिके श्रेणियों तथा नेतिक अनुशासनके महान विभाग निमितकर उरे) उन प्राचीन पूवेजोकी मनोवृत्तिमें सदा अपनी ही मनोवृत्तिका प्रतिविव देखनेकी हमारी प्रवृत्ति रहती है ओर यही कारण है कि हम उन्हें कोरे कल्पनाशील असभ्योसि अधिक कुछ नहीं समझ पाते। हमारे लिये कविता वृद्धि तथा भावनाका विलासमात्र है, कल्पना एक खिलौना तथा आमोद-प्रमोदकी वस्तु, हमारा मन वहलानेवाली नतंकी है। कितु प्राचीन लोगोंके लिये कवि द्रष्टा होता था, अंतनिहित गृढ सत्योका उदघाटन करनेवाला ऋषि, ओर कल्पना राज- दरबारमें नाचनेवादटी नतकी न होकर भगवानके गृहकी पुजारिन होती थी । उसका काम कोरा मनगटंत ताना-वाना वुनना नहीं था अपितु कटिन तथां चपि हुए सत्योको मानसिक चित्रपटपर मूत्तिमान करना उसके लिये निदिष्ट कार्य था। वैदिक दटीमें रूपक या उपमाका भी गंभीर अथेमिं प्रयोग किया गया है। उससे विचारौके लिये आकपक अरुंकारौके सुञ्ञाव देनेकी नहीं, अपितु किसी वास्तविकताकों भली-भांति दर्शानेकी ही आशाकी जाती थी। उन ऋषियोंके लिये उपमा भी अव्यक्तका एक अभिव्यंजक प्रतीक थी और इसका प्रयोग भी इसीलिये किया जाता था कि इसके द्वारा मनके बोधके लिये उस भावका उद्बयोधक रीतिसे संकेत किया जा सकता था जिसे यथार्थ बौद्धिक शब्दोंके द्वारा अभिव्यक्त करनेकी आशा नहींकी जा सकती थी, क्योंकि बौद्धिक शब्द तो केवर तकंपूर्णं एवं व्यावहारिक विचारको अथवा भौतिक तथा वहिरंग भावको ही प्रकट करनेके लिये उपयुक्त होते




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