श्री भागवत दर्शन (खंड १४) | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 14 ]

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Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 14 ] by श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी - Shree Prabhu Duttji Brhmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रचेताओं को नारदज्जी का सदुपदेश १३ जाम ओर गुणों को छोडकर दूसरी बात बोले हो नहीं । प्रयेताओं से पूछा--/भगवन्‌ ! जितने समस्त श्रेय हैं उन सब नको अवधि कया है! किसके लिये ये सब किये जाते है ९ नारदजां ने कह्य--देखो बच्चो! आत्मग्रढ श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियों के प्रिय से भी जिय आत्मा हैं। श्री हरि की उपलब्धि हा बारतय में समस्त श्रेया की अवधि हे वे ही आत्मा हैं उनका ज्ञान ही आत्मज्ञान कहलाता हे। उनका दर्शन ही आत्मदर्शन है। अन्त करए द्रः उनका आरलिंगन करना ही आत्मरति अथवा आत्म क्रीडा हे। जिन कर्मों के द्वारा उनकी ग्रा्ति हो, वे कम तो साथक र, रोप समी निरर्थक कर्म कहे राये । वेदो में शोक, साबित श्नौर याज्ञिर तीन शरेष्ठ जन्म वताये -गये ऐं शुद्धजल मे उच्चवश मेँ जन्म लेना यह शीक जन्म कह लाता है । उच्चकुल में जन्म लेकर भी शाज्रीय सस्कार न हुए तो অন্ত अत्य सस्कारहान द्विज कदा गया ह जन्म के पश्चात्‌ पाँचये छठे आस्ये वपं यक्तोपवीव सस्फार होकर जो गाययी मन का उपदेश नोता हे, वह दूसरा सावित्र जन्म कहलाता हं } इसके अनन्तर वेदाध्ययल करके वियाह के अनन्तर जो वडे-बड यज्ञों फो दीक्षा क्री याती हे वह याज्ञिक जन्म कदलाता है। जे तानों जन्म मो विधिविधान पूर्वक श्रेष्ठ भी हो और इनके करने হক অনি হলে में भगपद्‌ भक्ति उत्पन्न नहों होती, तो इनका कई पिशेष महत्व नहा। चाहे आप चलितने चेदोक्त शुभ कर्म क/निय, चाहे आणकी मन्वन्तर यथवा कत्प की भी दीर्घ आयु क्यों न हा, चाह जाप चारो वेदा के चक्ता हा क्‍यों न हा, चाह प तपसया करत करत शरीर हा यो वयो न छुपा डालें, चादे आप समार में सर्यश्रेप्ठ प्रभाव शाला वक्ता ही क्‍या न वन जाये, चाहे आपको स्मरण शक्ति किदनी मी चीज्र फ्यो न हो, आप पः




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