श्री भागवत दर्शन (खंड २३) | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 23 ]

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Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 23 ] by श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी - Shree Prabhu Duttji Brhmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सन्तो के जीवन से उपदेश ११ यह कि उनके मन में कभी किसी प्रकार का मान अपमान का ध्यानं नहीं था । जपने आनन्द मे सदा मग्न रहते । हम जहां के लिये भी प्रार्थना करते, तुरन्त हाँ कर,लेते । कुछ लोगों के आग्रह से फटं लावाद में एक महीने के महो- त्तव का आयोजन किया । मैं वहां की भीतरी बातों से तो परिचित नहीं था । श्री हरिवाबा उड़िया बाबा दोनों' से प्रार्थना को, दोनों ने स्वीकोर करली | महाराज को पंदल जाना था। दैंदल चलकर पहुंचे | वहाँ आपस में ही विरोध हो गया। ज॑सा चाहिये उत्सव हुआ नहीं । मुझे बड़ी लज्जा छगी। मुझ भी ज्वर आ गया। आपने कह दिया कोई बात नही, ऐसा तो होता ही है | सांघुओं के लिये मान अपमान क्‍या ? प्रसंग बहुत वडा है, यहाँ मेरे कह्ने का तात्पयं इतना ही है किं भाप अभी किंसोकेदोपकती ओर ध्यान ही नही देते थे । मान अपमान में सुख दुख में सदा समभाव से रहते । ४ 7 जब भूसी में चौदहः महोने.का अखण्ड कीतंन साधनानुष्ठान हुआ' तव मेने प्रार्थना की 1 ढारईतीन सी कोस, पैदल आना सामान्य वातत नहीं थी। आपने मेरी प्राथेना सहपं स्वीकार कर छी और रामघाट. से पैदल'चलकर आप भूसी आ गये। जहाँ 'तक मुझे स्मरण है, जब से रामघाठ माये तवसे यहो एक काशी-प्रयाग की उनकी यात्रा सबसे प्रथम और सबसे अन्तिम थौ यहाँ लगभग दो उाई महीने आपन्ने निवास.किया । * जहाँ हमने आपके छियेः फूस की कुटिया' बनवाई थी, इसका चित्र अभी तक ज्यों .का त्यों मेरी आँखों के आगे नृत्य -कर रहा है। इस स्थान को देखकर . अबः्सी हृदय भर, आता है। आप यहां बड़े . ही: प्रसत्तः रहे, ,अत्यन्त “ही अनुराग आपने है ই




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