श्री भागवत दर्शन (खंड २२ ) | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 22 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मथानी ॐ लिये मन्दराचलं ( ५९५ ) ततस्ते मन्द्रगिरिमोजसोत्पाव्य दुमद : । नदन्त उदधि निन्युः सक्ताः परिधबाहवयः ॥ ( श्री भा० ट्स्क० ६ आ० ३३, श्लो० ) छ्प्प्य सत्र तें पहिलि चले उमय लैवे गिरि मन्दर । लीयो ठरत उखारि चले लैके देबासर ॥ 'भारसहों नहीं जाइ सबनिकूँ चक्कर आवै । सब ्रकुलाये कर्द, भाद्र महे श्रद्रत जावै ॥ , श्रदङृदधम करि , गिरि पिरयो, पिचे देव दानव सबदि । इतोत्साह जत्र॒ सत्र ये, प्रकटे , गर्द़ध्वज , तदि ;॥ वालक का जव उत्साह बढ़ाना होता है, तो उसे भाँति भाँति के उत्साहवर्धक वचन ' कह करं चलने को साता पिता भरिते करते ह । उनके उत्साह को पाकर वंह अपने बल पर बिना शरीश्युकदेवजी कहते ई-- “यजन्‌ { इस भकार - देवता श्रौर श्रसुर सलाद-कर फे परिघ के समान भुजाओं वाले'परम शक्ति 'शाली तथा अपने बल के अभिमान में चूर हुए सुर और असुर्ों ने अत्यन्त उत्ताइ के साथ मन्द्राचल, को उखाड़ लिया श्र क्षीर सागर के शरोर उसे लेकर ' जाने लगे।” ` शु का. *




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