श्री भागवत दर्शन (खंड ८२ ) | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 82 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) बना लो तो वह मी फलाहारी दो जायगी | হু बहुत से भक्त अपने घर पर सी प्रसाद पाने को आसन्त्रित करते। हमारे साथी उन्हे भली प्रकार समभन देते | गेहूँ, जा चने की कोई वस्तु मत बनाना 1 न्दे कूद का 'आटा दे देते वता देते “नल का पानी न डालना केवल फल, साग और कृद्द की पूडी वनाना |” तो वे पडी तो करट की चना लेते, किन्तु साग में उडद की दाल अवश्य मिला देते । हमारे आदमी बहुत मना करते, उड़द की गाल मत डालना । जिन्तु वे मानते दी नही थे, ये उडद की दाल की जीरे घनिये क तरह मसाला ही मानते आर थोडी बहुत दाल उसमे अवश्य मिला देते | अपने अपने देश का सदाचार है। हॉ तो अन्न उसे कहते है, जिसके दवाय प्राणो का तपण हो सुत्वा शान्त हो । सेत मे खडे हुए धान को शस्य कहते दै सेत से लाये किन्तु उस पर तुपा-भसी लगी रदी तो कटने पर्‌ उसका साम धान्य हो जावा हे । तुषा कों ूटकर पथक्‌ कर दिया, केवल असी रहित चावल हो गये उसे छिन्न अन्न अर्थात्‌ सूखा यन्न कहते है। उसे पतीली आदि में अग्नि पर पका लिया तो उस भुक्त या भात तथा श्रोदन कहते दै । जव प्रास चलते चलते श्रमित हो जति हैं, तब उन्हें आहार की आवश्यकता अनुभव होती है, उसी आवश्यकता का नाम बुभुक्षा या भूस हे। भोजन की इच्छा का ही नाम बुभुक्षा हे । हम जो श्वास प्रश्वास लते दै इससे बात कुपित दती हे नेत्र के सम्मुख अन्धकार छा जाता दै । तभी चधा लगती है । ज्ञुधा लगने पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता। ज्यॉ-ज्यो कुधा तीत्र होती जाती है त्यो-तयों दुख बढता जाता दहै । छुधा से वदृकर कष्टवायी कोई वस्तु नहा । समस्त कायं णक सुद्ध यन्न जव पेट मे पड जाय तभी ন্ট लगे दै} भूस भं भजन भी भावा नही दै, कटावतत हे--




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