हरिवंश कथा | Harivansh Katha

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Harivansh Katha  by महाकवि आचार्य जिनसेन -Mahakavi Aacharya Jinsen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हस्विंशकी उत्पत्ति ই दूसरेके द्वारा कष्ट मत दो और न उसका अनुमोदन करो । प्राणी मात्रके प्रति मेत्री भाव रखना चाहिए । विषय और वस्तु-स्वहूप को ठीक तौर पर समझने के लिए उन्होंने अनेकान्त अथवा स्यादवाद का प्ररूषण किया । भगवान महावीरके उपदेशके पश्चात्‌ उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधरने तत्व-चर्चा और शका-समाधान किया । समवसरण में श्रोताओमें राजगृहके राजा श्रेणिक भी थे। तीर्थकर महावीर स्वामीका उपदेश सुननेके पथ्चात्‌ उसने श्री गौतम गणधर से प्रार्थना की, “महराज । हरिवशकी उत्पत्ति ओर उसका वर्णन बताने की कृपा करे ।''श्री गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे हरिवश कौ उत्पत्ति- की कथा कहने लगे । सब देशोमे अति सुन्दर वत्स देश था। उसमें यमुनाके किनारे कोशाबी नगर थौ । यह नगर वत्स राज्यकी राजधानी थी। कोशाबी नगरकी रक्षाके लिए कोट, परिकोट ओर खाई वनी हुई थी । कोशावी नगर की मुन्दरताका वणेन करना कठिन है । उसमें बडे-बडे तथा ऊँचे-ऊंचे अनेक भवन थे और रातके समय उसमें जो प्रकाश होता था बह रत्नोके प्रकाशके समान था । वत्स देश के राजाका नाम सुमुख था । इसके राजमे समस्त प्रजा सुखी थी । बहुत से नरेश राजा सुमुखके आधीन थे । राजाका धनुष इन्द्रधनुषसे उत्तम था, क्योकि उसमे कीई दोषन था । राजा- का महा सुन्दर शरीर और नव॒ यौवन देखने योग्य थे । वह धर्म शास्तरमें प्रवीण, विशेष केलाओको जाननेवाला ओर महा गुणवान था । वट्‌ सुजीवो पर अनुग्रह करने में समथं ओर प्रजाका पालक था, पर दुष्टोको दबानेमे भी कुशल था। राजा सुमुखके अनेक বশী कारण प्रजा उसे हृदयसे चाहती थी ओर सदा आशीर्वाद देती थी ओर उसकी दिन दूनी रात चौगनी उन्नति ओर चिर आनेन्दकी हूदयसे कामना करती थी । एक दिन राजा सुमुख अपने नगरमे भ्रमण कर रहे थे ।




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