श्रीमद् राजचन्द्र-वचनामृत | Shreemad Rajchandra Vachanamrat
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
49 MB
कुल पष्ठ :
978
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about शास्त्री जगदीशचंद्र Shastri Jagdishchandra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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पत्रांक पृष्ठ
५१३ ऋद्धि-तिद्धिविषयक प्रश्न ४५१
५६४ समयक्रां दक्ष ४५२
५१५ एक टीकिकं वचनं ४५२
५१६ देट् चुटनेमे ছে त्रिपाद् योग्य नदी ४५२
५१७ उदात भाव ४५
८ ज्ञानीके मार्गके आशवको उपदेश
करनेवदि वाक्य ४५२३-४
४१९ शानी पुरुष ४५५ ;
५२० गानका रक्षत ४५६
५२१ आमक्री आद्रा नक्ष धरति ४५६
५२२ विनारदशा ५५६९
५२३ अर्नेतानुग्रैषी कपाय ४५७
५२४ केवलशान ४५७
५२५ मुमुप्ुक विचार करने योग्य बात ४५७
(२६ परसार दर्शनोम भेद ४५८
५२७ दर्शनाक। तुलना ४५८
५२८ सस्य आदि दनी तुखना ४५९
२९ उदय प्रतिय्रंध ४५९
১০ লিনুদিক্কা इच्छा ४५९
५३१ सहज और उदीरण प्रवृत्ति ४६०
३२ अनंतानुयधीका दूसरा भद ४६०
०३३ मनापवस शान ८६१
३४ “यह जीय নামিদামী ই ४६१
केयलद धन बेधी दोका ४६१
ঈনলয়ান আখিমবক প্রন ४६२
गुणे समुदायते गुणी भिन्न हे वा न _ ४६९
दय कानमे भवटक्ान ही सकता है या नहीं ४६२
जातिस्मणा शान ४६२० रे
प्रतिममय जीव दिस तरह मरता रहता है ४६३
यलदओनर्म भूत भविष्य पदायाका त्रान
फिस तरह होता हू. ४६३
५३८ देखना आत्माका गुग है या नही ४६४
হালা समस्त घरीरम व्यापक नपर
भी अमुक भागसे ही क्यों शान होता ই? ४६४
घरीरं पीड़ा ছার যমন বলবা प्रद्याकरा
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एक स्थानपर ভিন্ন সানা ४६५
पर्दोका अर्थ ४६५
५४० युवावस्थाम विकार उसन दैनिका कारण ४६६
७०१ निर्मित्तवासी जीवेकि संगका त्याग ४६६
०५४९ अनुभवप्रकाश्न ४६६
। पनाक
¡ ५४३ घर्म, अधर्मं आदिविषयक
! ५४४ आत्मार्थकी चर्चाका श्रवण
: ५४५ सत्यसंतंधी उपदेशका सार
! #५४६ एवंभूत दृष्टित ऋजुसूत्र स्थिति कर
1 +५४७ में निजललरुप हूँ
1 ५४८ ८८ देखत भूली टके 3)
४९ आत्मा असंग है
५५० आत्तप्राप्तिकी सुल्मता
, ५५१ त्ाग वैराग्य आदिकी आवश्यकता
! ५५३ सब कार्योकी प्रथम भूमिकाकी कठिनता
¦ ५५३ “समज्या ते समाई र्या”
| #५५४ जे सुखकी इच्छा न करता हो वह
| नास्तिक, सिद्ध अथवा जद द
५५५५ दुःखका आ्व्यतिक अभाव
६ दुःखकी सकारणता
७ निर्वाणमार्ग अगम अगोचर है
৫ शानी पुरुषोका अनंत ऐश्वर्य
५५९ पल अमूल्य है
५६० सतत जागृतिरूप उपदे
হত আট অন
५६१ “ समजीने शमाई रक्या, समजीने शमाई
गया ”
এই মনু জী सम्यग्दृष्टिकी तुलना
५६३ संंदरदातजीके ग्रंथ
५६४ यथाथ समाधिके योग्य जक्ष
७६५ सर्वसंग-परित्याग
५६६ लौकिक और शाज्रीय अभिनिवेश
५६७ सब दुः्खाका मूल संयोग
५६८ “ अ्रद्धाशान लक्यां छे तो पण
६९ शात्रीय अभिनिवेश
#५७० उपाधि त्याग करनेका विचार
#५७१ মূ গল্প
४५७२ जिनोर्पादेष्ट आत्मध्यान
५७३ £ योग असंख जे जिन कट्या
५७४ सरव॑सगपरित्यागका उपदेशा
५७५ परमार्थ ओर व्यवहारसंयम
७५७६ आरंभ परि्रहका त्याग
७५७७ त्याग करनेंका लक्ष
७५७८ संसारका त्याग
५७९ सत्संगका माहत्तव
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४६७
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४६५७-९
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