श्री पुरुषार्थ सिद्ध्योपाय | Shri Purshartha Siddhyopaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूच स० ६-७ [ १३ ] इसी श्रौक्षय फी गाया श्री समयत्तार जोमे न ८, €, १० স্পাই हैं पर प्रफरणवश्य इतना झन्तर हं कि चहं तो वस्तु प्ता ज्ञान कराने के लिये ज्ये उसके चतुष्टय मे उपचरित असदभूत (चुद्धिपूर्दक राग) झठुप- चरित श्रमदुभुत (्रयुद्धिप्वंक राग) उपचरित सदृभरुत (स्वभाव पर्यायं भेद) तया भ्रद्रपचरित सद्भृत (ग्रुण भेद) ये चार भेद किये हैं वे केवल स्लेच्छ के वस्तु फे (श्रजान) को श्रार्य-दस्तु फा (ज्ञाता) बनाने के लिये किये हैँ । वल्तु के प्रतिपादन करने फे लिये ई किन्तु प्रतिपाद्य जो निश्चय सामान्य द्रव्य ह उत्तमे ये चारो मेद नहीं ह! वहां वत्तु परिज्ञान का प्रकरण ह श्रौर यहा निश््चयमोक्षमार्ग श्रौर व्यवहारमोलमागं क्ता प्रकरण है 1 यहा निचिकल्प मार्गे को निङ्चय ्रीर विकल्प मागं ॑को व्यवहार कह रहे हैँ । हाँ एक नियम दोनों जगह वरावर है भ्रीर वहां भी व्यवहार प्रतिपादक ह निश्चय प्रतिपाद्य है और यहाँ भी व्यवहार प्रतिपादक है निश्चय प्रतिपाद्य है। यहाँ भी व्यवहार का प्रयोग निश्चय को पकडाने के लिये किया गया है श्रीर यहाँ भी व्यवहार का प्रयोग निङ्गचय फो पकडाने के लिये किया गया हि । प्रकररप का वरावर ध्यान रखना चाहिये । श्री समयतार जी का उद्देश्य € तर्त्वो मे पाये जाने वाले सामान्य घ्रात्ना को पकडने का है क्योकि उत्तके श्राक्रव से सम्यक्त्व श्रयवा रत्नत्रय फो उत्पत्ति होती है श्रौर यहां यह्‌ दताना चाहते हैं कि उस सामान्य फे आश्चय से प्रकट होने वाली जो वास्तविक पर्याय हैं वह নী লিহজন (भूतार्थं ) मोक्षमागं है भ्रौर उनके पूर्चचर या सहचर जो विकल्प (राग) वर्तता है वह्‌ व्यवहार (अभृतार्थ) मोक्षमार्ग है। दोनों जगह प्रकरणव् इतना प्रन्तर है जो मुमुक्षु को वरावर झनुसरण करना चाहिये । कदठ्णावश लिख दिया हूँ ताकि मुमुक्षु फो भूल न हो जाय। व्यवहार मे भूल माणवक एवं सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिहस्य । व्यवहार एव हि तथा निरचयता यात्यनिरचयन्ञस्य 1७1




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