कवि भारती | Kavi Bharati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीधर पाठक स्थान-उत्थान के साथ ही चन्द्र-मुख भी समुज्ज्वल छगे था अधिकतर भरा । उस विमल त्रिम्ब से अनति ही दूर, उस समय एक व्योम मे बिन्दु सा रुख पड़ा स्याह था रंग कुछ गोल गति डोछता किया अति रंग मे मंग उसने खडा; उतरते उतरते आ रहा था उधर जिधर को श्चुन्य सुनसान थक था पड़ा। आम के पेड़ से थी जहाँ दीखती प्रेम-आलढिग्रिता माछती की छवता स उसी इश्च के सीस ढकी ओर कुछ खड़खड़ाकर एक शब्द सा सुन पड़ा साथ ही पंख की फड़फड़ाहइठ, तथा शत्रु निःशंक की कड़कड़ाहठ, तथा पक्षियों में पड़ी हड़बड़ाइट, तथा कंठ ओर वोच की चड़चड़ाइट तथा आर्ति-युत कातर खर, तथा शीघ्रवा--- युत उडाइट भरा दस्य इष दिव्य-छवि- छुब्ध दग-युग्म को घुणित अति दिख पड़ा | चित्त अति चकित अव्यन्त दुःखत हा ॥ पुनर्मिछन “क्यों यह दुःख तुझे परदेसी !” छगा पूछने वैरागी-- “किस कारण से भरा द्वदय, क्या व्यथा तेरे मन को छागी ! असौभाग्यवश छूट गया घर, मन्दिर सुख आवास 2 जिसके मिलने की ठुझकों अब रही न कुछ भी आस ।




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