सन बयालीस का विद्रोह | San Byalis Ka Vidroh

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San Byalis Ka Vidroh by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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-विषय-प्रवेश “हवा का कोका जो चलना होता है, चलता ही हँ, धटनाएं जो होनी होती है, होकर ही रहती हं । परर हम केवल उसके कारणों का विवेचन मात्र करते हं ।' --विक्टरदह्यगो हो सकता है मेरा यह प्रयास भी ऐसा ही हो । पर इच्छा हुई कि क्यो न इस महान्‌ आन्दोलन पर, जिसके वेग में लाखों तर भ्ौर नारी, बूढे भ्रौर जवान भ्राश्ा, जोश एवं तडप से यकायक उठे, श्रागे बढे झौर भ्रन्त में कुछ पीछे हटते से भी दीख पडे, कुछ लिखूँ; क्यो न इस अखिल भारतवर्षीय क्रांति के, जिसके उन्माद में होनी वाली भ्रनेंक मुख्य घटनाश्रों की खबर हर प्रकार से दुनिया से छपाई गई श्रौर जिसके नेताश्रो को तथा उनके उद्देश्य एवं ध्येय को हर तरह के बुरे व भद्दे श्र्थ पहनाकर दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के यहां, और बाहर, मनेक श्रसफल प्रयत्न किये मे, ध्येय, नीति, उत्पत्ति- काल, विकास, गतिविधि, व्यूह-रचना नारो आदि के सम्बन्ध मे निष्पक्ष दृष्टि से भौर वैज्ञानिक ढंग पर प्रकाश डालने का प्रयत्व करूँ ? मेरा विद्वास है कि दुनिया के इतिहास में दबे-पिसे व पद-दलित लोगो कै अनेक सफल व भ्रसफल प्रयत्त हुए हे; पर सन्‌ १६४२ का खुला विद्रोह! पुराने सब प्रयत्नों से ध्येय, नीति-निपुणता, संगठन, बलिदान, विस्तार प्रौर जनोत्साह्‌ श्रादि सभी बातो में कही बढा-चढ़ा है । सन्‌ १८५७ का गदर- फ़ांसीसी राज्यक्रांति, सन्‌ १६१७ की रुसी लाल काति सभी कितनी ही वातो में उसके सामने फीके जान पडते ह । यह वह महान्‌ प्रयत्त था जिसमे प्रायः सभी भारतीय नवयवकों ने, जिनके हृदय में जरा भी भ्राजादी की कसक व तड़ प|वाकी थी, किसी-त-किसी रूप में हिस्सा लिया | यह वह सामूहिक प्रयत्त था, जिसकी चिनगारी गाव-गाव में फैल गईं । ऐसा लगता था कि सारा राष्ट्‌ गहरी नीदसे




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