काव्यकल्पद्रुम प्रथम भाग | Kavyakalpdrum Bhag 1

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Kavyakalpdrum Bhag 1 by कन्हैयालाल पोद्दार - Kanhaiyalal Poddar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२७ भूमिका इटि कराल ; लि ইন্গাবা | त्रा নর্তি पराग निं पुरम, नदिं विक्रान अली कली ही तें वेश्यो आग कान ~ इसी शिक्षा-गर्मित शृद्भार-रसात्मक एक दोह को सुनाकर महाराज जयसिद्द को अन्तःपुर की एक अनखिली कज्ञी के वन्धन से विमुक्त करके राजकार्य में संलग्न कर दिया था। उपदेश में मधुस्ता होना दुलभ है। महाकवि भारवि ने कहा হি मनोहारि चर दुर्लभ बच. ।' का ৬৬ परन्तु यह अनुपम गुण केवल काव्य में ही है | ओर-- दुःख-निवारण के लिये भी काञ्य एक प्रधान साधन द । ऊात्यारमक देव-सतुति द्वाए असंख्य मनुष्यों के कष्ट निवारण होने के इतिहास महा मारतादि में है। मध्यकाल से भी श्रीसूयदेव आहदि से मयूरादि'* कवियों के दुःख निःशेप होने के उदाहरण मिलते है। और काव्य- जन्य आनन्द केसा निरुपस है, इसका अनुभव सहृदय कातठ्या जुरागी ही कर सकते है । अत्यन्त कए्-साध्य चज्ञादिकों के करने से स्वर्गादिकों की आप्ति का आनन्द कालान्तर ओर देहान्तर से ^~ কব ३ कहते है, सयूर कवि कुप्ठरोग से पीडिेत होकर यह भ्रण करके हरिद्वार गए कि ध्यातो सूं के अनुग्रह से कुष्ठ दूर हा। जायगा, नहीं तो मैं प्राण विसर्जन कर दूंगा! | वह किसी ऊँचे बृत्त की शाखा ले लटकते हुए एकसी रस्सो के छीके पर बेठकर श्रीसूर्य की स्तुति करने लगा और एुक-एक पद्म के अन्त से एक एक ररसी को काटते गए । सब रस्सियों के काटे जाने के पहले हो, काव्यसयी स्तुति से भगवान्‌ भास्कर ने प्रसन्न होकर उनका रोग निर्मु कर दिया |




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