जिनवानी | Jinvani

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Jinvani by सुशील - Sushil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ मेरे इस कथनको पढ़नेवाडे सलनोंको ध्यान रखना चाहिये कि, मैं इन छेखेंके विषग्रमें अपना विचार संक्षेपमें तथा प्रतिपादक सरणीसे ही प्रकट कर रह हूं। इसके प्रयेकं युदक वारेमें विस्तार पूषेक तथा समाछोचक दश्टिसे छिखनेके लिये भी स्थान है, पर्तु इस समय मैं इस इृश्सि नहीं लिख रहा हूं। प्रथम यह देखना चाहिये कि ये लेख किस प्रकारके जिज्ञासुओंके लिये लिखे गये है । ' जिनवाणी ' मासिक पत्र बंगठा भाषा में निकलता था। उसमें प्रकाशित ये छेख प्रधानतः बंगाली पाठकोंके लिये ही ढिखे गये है। वंगाढी पाठक যানি অন্ন ही गुरुवचनकी 'तह॒ति” “तहत्ति” (तथेति) करनेवाह्य एक श्रद्वा जैन नही; वैगाडी पाठक्रगण यानि छोटे वदे सभो विषयमे विवेचक गौर समाछोचक इंशिसे, गहराईमें पहुंचकर सत्यकी खोज करने- वाले विल्कुछ आध्यात्मिक गण, ऐसा भी नहीं; परन्तु यह पाठकंगण साधारणतः दरैनमात्रम रुचि रखेनवाला, प्रत्येकं द्हीनके विषयमे न्यूनाधिकं जानकारी रखनेवाख, तर्व-रैर, ओर तुखनात्मक पद्रतिका मूल्य सम्नेवाल एवं पथ या सम्प्दार्यकी चार दीवारीसे रहित विशाल श्ञानाकाशमें अपने चित्तको स्वच्छन्द्‌ रीतिसे उड़ने देनेकी इच्छा रखने- वाल होता है | यह वात याद रखनी चाहिये कि, इस प्रकारके बंगाली पाठक-बगमें जैनोंकी अपेक्षा जैनेतर समाज ही मुख्य और अधिक है। उनमें मी प्रधानतः केठेलके विद्यार्थियों और पण्डित प्रेफिसरोका ही आधिक्य होता है । जव कोई, जन्मसे ही जैनेतर और वुद्धिप्रधान নানি ढिये, जैन दशनके साधारण और विशिष्ट तत्वोंके विषये सफ़हता पूर्वक कुछ छिखना चाहता है तो यह स्वाभाविक बात है कि




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