मृत्यु-शोक की शान्ति | Mrityu-Shoka Ki Shanti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मृत्यु कन्या दुखीः:सनुष्य--मुझे अपनी मृत्यु का तिल सात्र भी शोक नहीं । प्रियवर - के मृद्युलोक से संतप्त ह । तुम्डारे शीतल सं से जीवन-उवर अचश्य दूर होगा । आओ, तुम इतनी कठोर क्यों हो कि किसी के चुल्लाने- प्र भी नहीं आती हो, और इतनी धृष्ट क्‍यों हो कि कहीं विन चुलाये भी चल्ली जाती हो ! में तुम्हें अपने प्राण देना चाहता हूँ । आओ, मुझे अपना वर स्वीकार करो, और अपने दिमपारशि के सर्श से मेरा चित्तदाह द॑रो ॥ सृत्यु कन्या--मैं कुल की कन्या हूँ। मेरे पिता का नाम काल है । पिता की आज्ञा बिना सें किसो को नहीं वर सकती । सुनो, मुझे यह शाप भी है. कि जिस पुरुष के साथ मैं पाणि-महण करती हूँ वह मेरे अङ्गस्पशे ॐ सुखसे तत्काल मुद्ध हो जाता दै ॥ मेरे इस सुख-संसर्ग से जब मूछित पुरुष के शरीर का सव ताप दूर हो जाता ह ओर जव ओं उसे पड़त शरीर खे छुड़ाकर दिव्य-शरीर के साथ अपनी सृत्यु-क्रीड़ा के लिये ले जनि लगती रँ तव शीवरदी उसकी मूर्खा भङ्ग दोती दै, बद सचेत हो जाता है, और मेरा झुख देखे विना ही मुझे तिरस्कार कर बह दिव्यदेहथारी जीवन-सुन्दरी को व्यादलेता है और अपने पिवरों से मिलने के लिय्रे पिठुलोक को सिधारता है ॥ में वंचित रह.जाती हूँ | मुझे चर का सोभाग्य कद्ापि प्राप्त नहीं | में तो बस जीवन-सुन्दरी की किंकरी हूँ । उसके लिये वर हू ढ हू ढ [>




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