गीता - दर्पण | Geeta - Darpan

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Geeta - Darpan by स्वामी आत्मानन्द मुनि - Swami Aatmanand Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४६ कालका शिमला-रेल्वेपर पहाड़ी सुक्ताम सलोगढ़ा पहुँचा | डाक्टर साहिबनेः वहाँ श्रीयुत्‌ सरदार हजरासिंइजी फरोढ़ाको कोटीकें एक भागमें लेखककाः आखन करा दिया, जो कि एक बहुत ही सुन्दर पर्वत्तीय दृश्यसे परिपूर्ण एकान्त स्थान था । सर्वप्रकारसे प्रशान्त चित्तमें फिर गुहुदी उत्पन्न हुई कि पहले गोतापर खबसे निराली एक तसवपूर्ण प्रस्तावना लिखी जानी चाहिये । अस्त, यह कार्य आरम्भ हुया, परन्तु जिस समय चित्त तस्व चिन्तनसे विराम होता था, केवल उस समय द्वी यद्द लेख-कार्य द्वाथर्मे लिया जाता था | सानो ख़ाल्ली समयका यह पुक 'अवलम्धनसात्र था, यहद्द लेखकार्य हो अपना कोई कर्तव्य नहीं चनाया गया था। इस प्रकार पाँच भास वहाँ रहकर प्रस्तावना बढ़े शान्तचित्तते तथा चित्तके विनोदुके खिये लिखी गई । वर्षा-छतु वहाँ समाप्त करके हेसन्त व शि्षिर-ऋतु लेखकने- ओषुष्करराजमें निकाली । यहां भी देवयोगसे लेखकफो एक सुन्दर एकान्त स्थान सिला, जो कि चुट्छे-पुष्करके कच्चे रास्तेपर एक ऊँचे टीलेपर 'लालदास के भॉपदे'के नामसे विख्यात है অহা विचर इषा कि प्रस्तावना त्तो लिखी गै, परन्तु जो रए प्रस्तावनामें स्थिर फी गदे है, उछी दष्टिको केकर गीतकि सम्पूर्ण श्रध्यायोकी ससालोचना भी करनी चाहिये, इसके छिला प्रस्तावना अधूरी ही रह जाती है । अस्त, प्रस्तावमाके अन्तर्गत समालोचनाका कार्य आरम्भ हुआ । दस प्रकारं लग-मग १६ मासमे यह्‌ प्रस्तावना-कार्य समाप्त. छुआ । प्रस्तावना समाप्त होनेपर श्रीगुरुदेवजीके चरण-कमलें में चह निवेदन की गर, जिसको श्रवणकर वे बहुत हर्पित हुए और शपना द्वार्दिक आशीषोद प्रदान किया । इसके लग-भग १६ दिन पीछे अकस्मात्‌ एक विचित्ररूपसे श्रीगुरदेबजी व्याधरमें ही सशुणरूपको परित्यागकर अपने निर्मुण अद्यस्वरूप लीन हो गये / झोक है कि ये अपने सशुणरूपसे वस्थभूपणसे विभूषित इस अन्थकों देख न सके, यद्यपि ये अब भी अपने सात्तीस्वरूपसे इसके सारात-दष्टा हैं। जब भ्रस्तावना संतोपजनकरूपस्टे लिखी जा खुकी तो घूल-अस्थ लिखनेंका उत्साह हृदयमें उमड़ा और मई सनत्र्‌ १६३८ ० से




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