पलटू साहिब की बानी [भाग २] | Paltu Sahib Ki Bani [Part 2]

Paltu Sahib Ki Bani [Part 2] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रेखता गगन मैदान में ध्यान धूनी धरै, ओ দন में लखि गुरू का ज्ञान छाला। चंद्र सिर तिलक है ततत सुमिरन ररे उपै हरि राप अवधूत बाला॥ ঈন भृति विवेक कै फएावड्ी, ग्रूदरी खुपी अरू आड़ मालत्रा। दास पलट कहे संत की सरन में, लिखा नप्तीब को मेटि डाला ॥२३॥ मने मूरति करें तने देवल बना, निकट में छोड़ि कहेँ दूरि धावे। जल पाषान कछु खाय बोले नहीं, बिना सतसंग सब भटकि आवे॥ यही तहकीक करू बोलता कौन हे, यही है रम जो नित्त खाबे। दास पत्चट कहे बोलता एूजिये, करे धतसंग तब सेद पावे ॥२४॥ ॥ चितवानी ॥ देह और गेह परिवार को देखि के, पाया के जोर में फ्रि फूला। जानता सदा दिन ऐसे ही जायँगे, संदरी संगं छुखपाल भूला ॥ चारि जून खात है बेठि के खुसी से, ५... .. पैहुंत जुदाई के भया थूला। सेज-वँद' बाँधि के ছাল জী নবাব, __ रेत दिन करत है दूध कूला*॥ (९) এ से बिछोने को पलंग के पायो से वध देते हे! (र) इल्ला! = `




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