भारतेंदु - युगीन नाटक | Bhaarattendu Yugiin Naatak

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Bhaarattendu Yugiin Naatak by डॉ. सुशीला - Dr. Sushila

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मारतेन्दुयुगौन नाटक मरतेन्दु-युग | ७ की संज्ञा प्रदान की गई | ভাত जगन्नाथ शर्मा के मतानुसार सन्‌ १८६३ से १८६३ ई० के परिमित काल में ही जितना प्रचुर साहित्य हिन्दी मे विमित हुक्र, स्थात्‌ ही किसी साहित्य के इतिहास मे केवल तीस वर्षों के भीतर इतना हुआ हो यह हिन्दी गद्य-साहित्य का उदयकाल था और इन तीस वर्षों के सूत्रधार थे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ।” भारतन्द के जन्म के समय साहित्य की परनिष्ठितं भाषा श्रौ भजन की दिशां निर्धारित नही थी, साथ ही मे बदलती हुई परिस्यति के साथ उसका स्पष्ट सम्बन्ध भी नही दिखाई देता था, किन्तु स्वथ भार्तेम्दुने रीति-रम्पयसे हटकर भ्रपते समय की सामाजिक, राजनीतिक श्लौर धामिक स्थितियों से साहित्य-विधाओं को सम्बद्ध किया और साथ ही रचनाकारो का एक मण्डल निर्मित किया, जिससे साहित्य लिखने की प्रेरणा लोगो को प्राप्त हुई । साहित्य की उन्‍्तति और साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति की लालसा से अनेक महकिमग्रो ने लेखन कार्य आरम्भ किया) सन्‌ १८४५० से १६०० ई० के काल में भारतेस्दु के व्यक्तित्व क्तौ स्पष्टे छाप दिखाई पड़ती है | श्रपनी चौतीस वर्ष की भ्रल्फ आ्रायु मे ही, उच्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उन्होने जो प्रभाव छोड़ा वह साहित्य के इतिहास में अ्विस्मरणीय है। इस कारण ही सन्‌ १८५०-१९०० ई० का समय मसेन के नाम से श्रभिहित किया जाता है । प्रभावशाली व्यक्तित्व होने के कारण और साहित्य-क्षेत्र मे नेतृत्व प्रदान करने के कारण इस काल का नामकरण युगपुरूष भारतेन्दु हरिश्वरद्ध के नाम के ग्राधार पर किया जाता है। श्राचीन ते नवीन के सक्रमण कलिमे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भारतवासियों की नवोदिव आ्राकाइक्षाओ्रो और राष्ट्रीयता के प्रतीक थे; वे भारतीय चवोत्यान के एक अग्रदूत थे। मध्ययुगीव पौसणिक वातावरण से जीवन और साहित्य को बाहर निकाल कर उन्हें आधुतिक रूप प्रदात करने की उन्होने सतत्‌ चेष्टा को। भाषा, भाव साहित्यिक रूप भादि की दृष्टि से उन्होंने मद्य और काब्य दोनों ही क्षेत्रो में हिन्दीभाषियों का नेतृत्व किण । उनके व्यक्तित्व का प्रतिविम्ब प्रन्य कवियों श्रौर लेखको की रचनाग्रो मे बरावर मिलता है, अत, इस काल का नाम भारतेत्दु का काल उपयुक्त ही है । * भारतेन्दु हरिश्वन्द्र के सम्बन्ध में श्री माखनलाल चतुर्वेदी का यह कथन है--'कलाकार अपनी क्ृतियों अथवा प्राकृतियों द्वारा आत्मदान करता है । कलम “तः ~~~ ~ हु हिंसों गद्य-पुग के निर्माता पू० रेड कि धुप ५४४




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