युग और साहित्य | Yug Aur Sahitya

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Yug Aur Sahitya by श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी - Shri Shantipriy Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नस [उन्‍्दु তি डाग्रिताओं द्वाश जहाँ सामाजिक उत्थान के स्वप्न मिले, वहां रसिक्रेः द्वारा पतन के भाव भों। एक ओर समाज उद्चवर्गीर ( राजबिलासी ) लोगों के दृपशों का ही जीवन का आनन्द समक- सं में अपती आत्म! का हतस कर अपते का झुलाता आ था, दूसरी ओर अपनो कमजारियों ने भी सत्साहित्य के प्रति बह श्रद्धालु थः, ब्योंकि गोस्वामी नुलमोहइस जसे साहित्य-स्रष्टा उसके उद्बोधक थे | किन्तु यह प्रगति नहीं थी, यह ता समाज का ढहना-गिरना ओर उसको रोक-धाम थो। प्रगति का प्रारम्ध तो हाता है १९ वी शताब्दी के अन्त से ही । सत्साहित्य के प्रति श्रद्धालु देकर भो तद तक समाज चछकमेरय था । उसका श्रद्धा रूढि हा गड थी, चप साहित्य द्वारा प्राप्त आदर्श समाज के जोबन में गतिमान्‌ न हाऊर कुशिठत था। १५वीं शताउदी के उत्तराद्ध से इसा रूढ़ि एवं अकम श्यता के विरुद्ध समाज-सुधारकां द्वारा असन्ताप जगा। यहीं से प्रगति का श्रीगणेश है। समाज-सुधार के आन्दोलन জীহ पकड़ते गये और आज हम देखते है कि तब से अब तक कितना परिक्‍तन है। गया है। यदि भध्ययुग का कोइ मनुष्य आज के समाज के देख पाये तो वह विश्षय से अवाक्‌ हा जायगा, इसी लिए आज भी जे रूदि-म्रस्त हैते प्रगति के प्रति प्रतिक्रियाशील हैं | यह मही कि १९बो शाब्दा के अन्त स नचौन राजतन्व विगत राजतन्त्रों की पद्य हमारे सासाजिक अमभ्युदय के प्रति হ্‌ ध्य्‌ पु त




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